Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
( बहूई पावाई कम्माई संचिणित्ता) बहुत से पाप कर्मों का संचय करके, (उन्नाई संभारकडेणकम्मणा) पापकर्म के भार से इस तरह दब जाते हैं ( से जहाणामए अयगोलेइ वा सेलगोलेइ वा उदगंसि पक्खित्ते समाणे उदगतलमइवइत्ता धरणितल पट्ठा भवति) जैसे कोई लोहे का गोला या पत्थर का गोला पानी में डालने पर पानी को लाँघ ( भेद ) कर पृथ्वी पर भार के कारण नीचे बैठ जाता है, ( एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाते वज्जबहुले, धूतबहुले, पंक बहुले वेरबहुले, अप्पत्तियबहुले, दंभबहुले, णियडिबहुले, साइबहुले, अयसबहुले उत्सन्नतसपाणघाती कालमासे कालं किच्चा धरणितलमइवइत्ता अहे णरगत लपइट्ठाणे भवइ) इसी तरह कर्मों के भार से दबा हुआ गुरुकर्मी तथाकथित क्रूर पुरुष अत्यधिक पापयुक्त, कर्मपंक से अत्यधिक मलिन, अनेक प्राणियों साथ वैर बँधा हुआ, बुरे विचारों से पूर्ण, अविश्वासयोग्य, दंभ से पूर्ण, ठग, देश, वेश और भाषा को बदलकर दूसरों के साथ द्रोह या धोखा करने वाला, उत्तम वस्तु में तुच्छ वस्तु मिलाकर या नाप-तौल में गड़बड़ करके ठगने वाला, जगत् में अपयश के कार्य करने वाला, तथा त्रस प्राणियों का घात करने वाला वह पुरुष आयुष्य पूर्ण होते ही मरकर ऊपर-ऊपर की रत्नप्रभा आदि नरक भूमियों को लाँघकर नीचे के नरक तल में जाकर स्थित होता है ।
व्याख्या
ये अधर्मस्थान के अधिकारी पुरुष
इससे पूर्व सूत्रों में अधर्म, धर्म और मिश्र स्थानों का वर्णन किया गया था । परन्तु इस सूत्र से इन स्थानों में रहने वाले पुरुषों का वर्णन प्रारम्भ होता है । इस सूत्र में खासतौर से उन पुरुषों की वृत्ति, प्रवृत्ति, व्यवहार, चर्या, रंग-ढंग आदि का वर्णन किया गया है, जो अधर्मस्थान के अधिकारी होते हैं ।
इस लोक में जो व्यक्ति गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करते हुए विषयसुख-साधनों को पाने की बड़ी-बड़ी आशायें और महत्वाकांक्षायें रखते हैं अर्थात् जो लोग रातदिन इसी धुन में रहते हैं कि कैसे धन-धान्य, पशु, परिवार, मकान - जमीन जायदाद तथा भोग- सामग्री आदि बढ़ाई जाए। साथ ही ये लोग वाहन, ऊंट, घोड़ा, गाड़ी, नाव, खेत, मकान, दास-दासी आदि परिग्रह ( वस्तुओं का संग्रह) अधिक से अधिक रखते हैं और इनके पालन-रक्षण के लिए महान आरम्भ समारम्भ करते हैं । ये हिंसा आदि पाँचों महान आस्रवों में से किसी से भी निवृत्त न होकर सबका जीवन भर सेवन करते हैं । रात-दिन अधर्म के कार्यों में संलग्न रहकर ये अधर्म की ही चर्चा और अधर्ममय चर्या रखते हैं । ऐसे लोग जिन्दगी भर दूसरे प्राणियों को मारने-पीटने तथा उन्हें नाना प्रकार से कष्ट देने की आज्ञा देते रहते हैं । वे स्वयं प्राणियों का वध करते रहते हैं । वे हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह को जीवन भर नहीं छोड़ते । वे
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