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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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है । यह स्थान संसार को बढ़ाने वाला एवं कर्मपाश को सुदृढ़ करने वाला है । इस स्थान के अधिकारी से सिद्धि, मुक्ति, निर्वाण या निर्याण तथा समस्त दुःखनाश कोसों दूर रहता है । मृगतृष्णा के जल के समान इसमें सुख की भ्रान्ति है, विपलिप्त भोजन के समान परिणाम में यह अत्यन्त दुःखोत्पादक है, एकान्त मिथ्याजाल है, बुरा है, दुष्परिणामजनक है | अतः बुद्धिमान पुरुष को कदापि इस स्थान की इच्छा नहीं करनी चाहिए । यह अधर्मपक्ष नामक प्रथम स्थान का स्वरूप है ।
मूल पाठ
अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ । इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मनुस्सा भवंति, तं जहा - आरिया वेगे, अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे, णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे, इस्समंता वेगे, सुवन्ना वेगे, दुदन्ना वेगे, सुरूवा वेगे, दुरूवा वेगे, तेसि च णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाई भवंति । एसो आलावगो जहा पोंडरीए तहा णेयव्वो । तेणेव अभिलावेण जाव सव्त्रोवसंता सव्वत्ताए परिनि तिबेमि ।
एस ठाणे आरिए केवले जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू | दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ।। सू० ३३ ॥ संस्कृत छाया
अथापरः द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभंग: एवमाख्यायते । इह खलु प्राच्यां वा प्रतीच्यां वा उदीच्यां वा दक्षिणस्यां वा सन्त्येकतये मनुष्याः भवन्ति, तद्यथा - आर्या एके, अनार्या एके, उच्चगोत्रा एके, नीचगोत्रा एके, कायवन्त एके, ह्रस्वा एके, सुवर्णा एके, दुर्वर्णा एके, सुरूपा एके, दुरूपा एके, तेषां च क्षेत्रवास्तूनि परिगृहीतानि भवन्ति । एष आलापकः यथा पौण्डरीके तथा नेतव्यः । तेनैवाभिलापेन यावत् सर्वोपशान्ताः सर्वात्मतया परिनिर्वृत्ताः इति ब्रवीमि ।
एतत्स्थानमार्यम् केवलं यावत् सर्वदुःखप्रहीणमार्ग एकान्त सम्यक साधु । द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभंग एवमाख्यातः ।। सू० ३३ ।। अन्वयार्थ
( अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ) इसके पश्चात् द्वितीय स्थान जो धर्मपक्ष कहलाता है, उसका विकल्प इस प्रकार कहा गया
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