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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
व्याख्या
दसवाँ क्रियास्थान : मित्रदोषप्रत्ययिक इस सूत्र में दसवें मित्रदोषप्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है । इस जगत् में कई ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो अपने माता, पिता, भाई, बहन, स्त्री, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू आदि परिजन या प्रियजन का जरा सा अपराध होने पर वे उन्हें बड़ा भारी दण्ड देते हैं । जैसे सर्दी के दिनों में वे उन्हें बर्फ के समान ठंडे पानी में गिरा या डुबा देते हैं, गर्मी के दिनों में उनके शरीर पर खौलता हुआ गर्म पानी डालकर कष्ट देते हैं या गर्म पानी उन पर छींटते हैं । गर्म लोहे से या गर्म तेल छिड़ककर उनके शरीर को जला डालते हैं। बेंत, छड़ी, चमड़ा, चाबुक, लता या किसी रस्सी से पीटपीटकर उनके शरीर की चमड़ी उधेड़ देते हैं । डंडे, मुक्के, ढेले, हड्डी, खप्पर या . ठीपरे से मार-मारकर उनके शरीर को जर्जर कर डालते हैं । ऐसे व्यक्ति जब घर पर रहते हैं तब परिवार वाले उनके बुरे स्वभाव के कारण दुःखी रहते हैं, और उनके परदेश चले जाने पर सुखी हो जाते हैं । ऐसा व्यक्ति, जो हर समय डंडा बगल में लिये फिरता है, जरा से कसूर पर भारी दंड देता है, डंडा आगे ही रखकर ही बात करता है, वह अपना इस लोक में भी अहित करता है, और परलोक में भी, वह यहाँ और वहाँ सर्वत्र अपने शत्रु बना लेता है। वह बात-बात में ईर्ष्या से जलता है, क्रोध करता है, हर किसी की पीठ पीछे निन्दा या चुगली करता है । मरने के बाद वह परलोक में भी ईर्ष्यालु, क्रोधी और परोक्षनिन्दक होता है। ऐसा व्यक्ति मित्रदोषप्रत्ययिक नामक क्रियास्थान का ज्वलन्त उदाहरण है । वह इस क्रियास्थान के कारण पापकर्म का बन्ध करता है । यह दसवें क्रियास्थान का स्वरूप है ।
मूल पाठ अहावरे एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिएत्ति आहिज्जइ। जे इमे भवंति–गूढायारा तमोकसिया उलुगपत्तलहुया पव्वगुरुया ते आयरिया वि संता अणारियाओ भासाओ वि पउज्जति । अन्नहा संतं अप्पाणं अन्नहा मन्नंति, अन्नं पुट्ठा अन्नं वागरंति, अन्नं आइक्खियव्वं अन्नं आइक्खंति । से जहाणामए केइ पुरिसे अंतोसल्ले तं सल्लं णो सयं णिहरइ, णो अन्नेण णिहरावेइ, णो पडिविद्ध सेइ, एवमेव निण्हवेइ अविउट्टमाणे अंतो अंतो रियइ एवमेव माई मायं कटु णो आलोएइ, णो पडिक्क मेइ, णो णिदइ, णो गरहइ, णो विउट्टइ, णो विसोहेइ, णो अकरणाए अब्भुठेइ, णो अहारिहं तवोकम्म पायच्छित्तं पडिवज्जइ । माई अस्सि लोए पच्चायाइ, माई परंसि लोए पुणो
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