Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र पुणो पच्चायाइ, निदइ, गरहइ, पसंसइ, णिच्चरइ, ण नियट्टइ णिसिरियं दंडं छाएइ। माई असमाहडसुहलेस्से यावि भवइ। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिज्जइ। एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिएत्ति आहिए ॥ सू० २७॥
संस्कृत छाया अथाऽपरमेकादशं क्रियास्थानं मायाप्रत्ययिकमित्याख्यायते । ये इमे भवन्ति गूढाचाराः तमःकाषिणः उलूकपत्रलघवः पर्वतगुरुकाः ते आर्या अपि सन्तः अनार्याः भाषाः प्रयुंजते । अन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा मन्यन्ते, अन्यत् पृष्टा अन्यद् व्यागृणन्ति । अन्यस्मिन् आख्यातव्ये अन्यद् आख्यान्ति । तद्यथा नाम कश्चित् पुरुषः अन्तःशल्यस्तं शल्यं नो स्वयं निर्हरति, नाऽप्यन्येन निर्हारयति, नाऽपि प्रतिविध्वंसयति, एवमेव निन्हुते पीड्यमानोऽन्तोऽन्त: रीयते । एवमेव मायी मायां कृत्वा नो आलोचयति, नो प्रतिक्रमते, नो निन्दति, नो गर्हते, नो त्रोटयति, नो विशोधयति, नो अकरणाय अभ्युतिष्ठते, नो यथाहं तपः कर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते, मायी अस्मिन् लोके प्रत्यायाति, मायी परिस्मन् लोके प्रत्यायाति, निन्दति, गर्हते, प्रशंसति, निश्चरति न निवर्तते। निसृज्य दण्डं छादयति मायी असमाहृत शुभलेश्यश्चापि भवति। एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं सावद्यमित्याधीयते । एकादशं क्रियास्थानं मायाप्रत्ययिकमित्याख्यातम् ॥ सू० २७ ।।
अन्वयार्थ (अहावरे एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिएत्ति आहिज्जइ) अब ग्यारहवाँ क्रियास्थान है, जिसे मायाप्रत्ययिक कहते हैं। (जे इमे भवंति-गूढायारा तमोकसिया उलुगपत्तलहुया पन्वयगुरुया ते आरिया वि संता अणारियाओ भासाओ वि पउज्जति) जो व्यक्ति दूसरों को पता न चले ऐसे गूढ़ आचार वाले होते हैं, विश्वास पैदा करके जगत् को ठगते हैं, लोगों को अंधेरे में रखकर बुरे काम करते हैं, उल्लू के पंख के समान हलके होते हुए भी वे अपने को पहाड़ के समान भारी मानते हैं, तथा वे आर्य होते हुए भी अनार्य (म्लेच्छ) भाषाओं का प्रयोग करते हैं। (अन्नहा संतं अप्पाणं अन्नहा मन्न ति) वे और तरह के होकर भी अपने आपको और तरह के मानते हैं। (अन्न पुट्ठा अन्न वागरंति) वे और बात पूछे जाने पर और ही बात बतलाते हैं, (अन्नं आइक्खियव्वं अन्नं आइक्खंति) उन्हें दूसरी बात कहनी चाहिए, लेकिन कहते
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