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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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पूर्वकृत शुभ कर्म-उदय को प्राप्त हैं वे शक्तिशाली पुरुष उपशान्त धर्म क्रियास्थान में प्रवृत्त रहते हैं, और इससे भिन्न प्राणी अनुपशान्त अधर्म क्रियास्थान में प्रवर्तमान रहते हैं । इस जगत् में जितने भी प्राणी समझदार (विज्ञ) और विशिष्ट चेतनाशील (देव, मनुष्य, नारक और तिर्यचों में) हैं, वे सब सुख-दुःखरूप संवेदन का अनुभव करते हैं, उनके भी ये तेरह क्रियास्थान श्रमण भगवान् महावीर ने बताये हैं । वे क्रमश: इस प्रकार हैं --
(१) अर्थदण्ड, (२) अनर्थदण्ड, (३) हिंसादण्ड, (४) अकस्मात्दण्ड, (५) दृष्टिविपर्यासदण्ड, (६) मृषाप्रत्ययिकदण्ड, (७) अदत्तादानप्रत्ययिकदण्ड, (८) अध्यात्मप्रत्ययिक, (६) लोभप्रत्ययिक, (१०) मित्रद्वषप्रत्ययिक, (११) मायाप्रत्ययिक, (१२) लोभप्रत्ययिक और (१३) ईर्यापथिक । ये १३ क्रियास्थान कहलाते हैं । इन्हीं के द्वारा जीवों को कर्मबन्ध होता है । इनसे भिन्न कोई क्रिया ऐसी नहीं है, जो कर्मबन्ध का कारण हो । इन्हीं तेरह क्रियास्थानों में संसार के समस्त प्राणी प्रवर्तमान हैं।
यद्यपि इन तेरह ही क्रियास्थानों की व्याख्या क्रमशः शास्त्रकार करेंगे, तथापि संक्षेप में यहाँ हम उनका अर्थ देते हैं----
(१) हिंसा आदि दूषणयुक्त जो प्रवृत्ति किसी प्रयोजन से की जाती है, फिर वह चाहे अपनी जाति, कुटुम्ब, मित्र आदि के लिए ही क्यों न की जाती हो, वह अर्थदण्ड है।
(२) बिना किसी प्रयोजन के केवल आदत के कारण या मनोरंजन के हेतु की जाने वाली हिंसादि दूषणयुक्त प्रवृत्ति अनर्थदण्ड है।
(३) अमुक प्राणियों ने मुझे या मेरे सम्बन्धी को मारा था, मारेगा या मार रहा है ऐसा समझकर जो मनुष्य उन्हें मारने की प्रवृत्ति करता है, वह हिंसादण्ड का भागी होता है।
___ (४) मृगादि को मारने की भावना से बाण आदि छोड़ने पर अकस्मात् किसी अन्य पक्षी आदि का वध हो जाने को अकस्मात्दण्ड कहते हैं ।
(५) दृष्टि में विपरीतता होने पर मित्र आदि को अमित्र आदि की बुद्धि से मार डालना दृष्टिविपर्यासदण्ड है।
(६) अपने लिए, अपने कुटुम्ब या अन्य किसी के लिए झूठ बोलना, बुलवाना या झूठ बोलने वाले का समर्थन करना मृषाप्रत्ययदण्ड है।
(७) इसी प्रकार चोरी करना, करवाना, करने वाले का समर्थन करना अदत्तादानप्रत्ययदण्ड है।
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