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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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वा, मनुष्येषु वा, देवेषु वा ये चान्ये तथाप्रकारा: प्राणा: विद्वांसो वेदनां वेदयन्ति, तेषामपि च खलु इमानि त्रयोदशक्रियास्थानानि भवन्तीत्याख्यातम् तद्यथा-अर्थदण्ड: १, अनर्थदण्डः २, हिंसादण्ड: ३, अकस्माद्दण्ड: ४, दृष्टिविपर्यासदण्ड: ५, मृषाप्रत्ययिक: ६, अदत्तादानप्रत्ययिकः ७, अध्यात्मप्रत्ययिक: ८, मानप्रत्ययिक: ६, मित्रदोषप्रत्ययिक: १०, मायाप्रत्ययिकः ११, लोभप्रत्ययिक: १२, ईर्यापथप्रत्ययिक: १३ ॥ सू० १६ ।।
अन्वयार्थ __ (आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं मे सुयं) हे आयुष्मन् ! उन भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा था, मैंने सुना है। (इह खलु किरियाठाणे णामज्झयणे पण्णत्ते) इस जैनशासन या प्रवचन में क्रियास्थान नाम का अध्ययन कहा गया है उसका अर्थ (प्रतिपाद्य विषय) यह है-(इह खलु संजू हेणं दुवे ठाणे एवमाहिज्जंति, तं जहा-धम्मे चेव, अधम्मे चेव, उवसंते चेव, अणुवसंते चेव) इस लोक में सामान्य रूप से दो स्थान बताये जाते हैं, एक धर्मस्थान, दूसरा अधर्मस्थान, एवं एक उपशान्त स्थान और दूसरा अनुपशान्त स्थान । (तत्थ जे से पढमस्स ठाणस्स अहम्मपक्खस्स विभंगे, तस्स णं अयमढे पण्णत्ते) इन दोनों स्थानों में से पहला अधर्मपक्ष का जो विभंग (विकल्प) है. उसका अर्थ (अभिप्राय) इस प्रकार कहा गया है-(इह खलु पाइणं वा ६ संतेगइया मणुस्सा भवंति) इस लोक में पूर्व आदि दिशाओं और विदिशाओं में अनेक विध मनुष्य रहते हैं, (तं जहा-आरिया वेगे, अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे, णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे, हस्समंता वेगे, सुतण्णा वेगे, दुवण्णावेगे, सुरूवा वेगे, दुरूवा वेगे) जैसे कि कई लोग आर्य हैं, कई अनार्य हैं, अथवा कई उच्चगोत्र में उत्पन्न हैं, कई नीच गोत्र में उत्पन्न हैं, या कई लम्बे कद के और कई ठिगने कद के हैं अथवा कई उत्कृष्ट वर्ण वाले और कई निकृष्ट वर्ण वाले होते हैं, या कई सुरूप हैं तो कई कुरूप मनुष्य हैं । (तेसि च णं इमं एयारूवं दंडसमादाणं संपेहाए, तं जहा—णेरइएसु वा, तिरिक्खजोणिएसु वा, मणुस्सेसु वा, देवेसु वा जे जावन्ने तहप्पगारा विन्नु वेषणं धयंति) उन मनुष्यों के आगे कहे अनुसार पापकर्म (दण्ड समादान) करने का संकल्प-विकल्प होता है, जैसे कि नारकों में, तिर्यञ्चयोनि के प्राणियों में, मनुष्यों में और देवों में, या जो इसी प्रकार के अन्य प्राणी हैं उनमें जो विज्ञ (समझदार) प्राणी हैं, वे सुख-दुःख का वेदन (अनुभव) करते हैं, (तेसि पि य णं इमाई तेरस किरियाठाणाइं भवंतीतिमक्खायं) उनमें अवश्य ही ये तेरह प्रकार के क्रियास्थान होते हैं; ऐसा श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है । (तं जहा) वे क्रियास्थान इस प्रकार हैं-(अट्ठादंडे) अपने किसी प्रयोजन के लिए दण्ड हिंसादि पाप (अर्थदण्ड) की क्रिया करना, (अणट्ठादंडे) निष्प्रयोजन हिंसादि पाप पापक्रिया (अनर्थदण्ड क्रिया) करना, (हिंसादंडे) प्राणियों की हिंसा के रूप में
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