Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या
छठा क्रियास्थान : मृषाप्रत्यायिक
इस सूत्र में छठे क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है। उसका स्वरूप इस प्रकार है-जो व्यक्ति अपने लिए, अपनी ज्ञाति, घर तथा परिवार के लिए स्वयं असत्य बोलता है, दूसरे से असत्य बुलवाता है तथा जो व्यक्ति असत्य बोलता है, उसे अच्छा समझता है, उसका अनुमोदन-समर्थन करता है, उसे मिथ्याभाषण से उत्पन्न सावध कर्म का बन्ध होता है। यही छठे क्रियास्थान का स्वरूप है। इसके पूर्व जो पाँच क्रियास्थान बताये गये हैं, उनमें प्रायः प्राणियों का घात होता है, इसलिए उनको दण्डसमादान कहा है, जबकि छठ क्रियास्थान से लेकर तेरहवें क्रियास्थान तक के भेदों में प्रायः प्राणियों का घात नहीं होता, इसलिए इनको दाडस्थान न कहकर क्रियास्थान कहा गया है।
मूल पाठ अहावरे सत्तमे किरियट्ठाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति आहिज्जइ । से जहाणामए केइ पुरिसे आयहेउं वा जाव परिवारहेउं वा सयंमेव अदिन्नं आदियइ, अन्नेणवि अदिन्नं आदियावेति, अदिन्नं आदियंतं अन्नं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिज्जइ। सत्तमे किरियट्ठाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति आहिए ॥ सू० २३ ॥
संस्कृत छाया अथाऽपरं सप्तमं क्रियास्थानमदत्तादानप्रत्ययिकमित्याख्यायते । तद्यथा नाम कश्चि । पुरुष: आत्महेतोर्वा यावत् परिवारहेतोर्वा स्वयमेव अदत्तमादद्यात्, अन्येनाऽप्यादापयेत् अदत्तमाददानमन्यं समनुजानाति, एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिक सावद्यमाधीयते । सप्तमं क्रियास्थानमदत्तादान प्रत्ययिकमित्याख्यातम् ।। सू० २३ ॥
अन्वयार्थ (अहावरे सत्तमे किरियट्ठाणे अदिनादाणवत्तिएत्ति आहिज्जइ) इसके बाद सातवाँ क्रियास्थान है, जिसे 'अदत्तादान-प्रत्ययिक' कहते हैं । (से जहाणामए केइ पुरिसे आयहेउ वा जाव परिवारहेउवा सयमेव अदिन्न आदियइ) जैसे कोई व्यक्ति अपने लिए, अपनी जाति, घर या परिवार आदि के लिए स्वयं मालिक के द्वारा न दी गई वस्तु को ले लेता है, (अन्नेणवि अदिन्नं आदियावेति) मालिक के द्वारा न दी हुई वस्तु को दूसरे से भी ग्रहण कराता है। (अदिन्नं दियंत अन्नं समणुजाणइ) तथा
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