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सूत्रकृतांग सूत्र चंचल सम्पत्ति और परिवारवर्ग के मोह में फंसकर कौन विवेकी पुरुष अपने कल्याण के अवसर को छोड़ सकता है ? बुद्धिमान पुरुष इन बातों को जानकर सम्पत्ति, परिवार तथा अपने शरीर आदि में कभी लुब्ध, मुग्ध एवं आसक्त नहीं होते। ऐसे पुरुष ही भिक्षाचर्या के लिए उद्यत होते हैं, स्वयं संसारसागर को पार करते हैं और उपदेश आदि के द्वारा दूसरों का उद्धार करते हैं। दोनों प्रकार के -जीव-अजीवरूपी या त्रसस्थावररूपी लोक को जानकर तथा संसार-पुष्करिणी के उत्तम श्वेतकमलसम धर्मश्रद्धालु पुरुषों को वे ही उस पुष्करिणी से बाहर निकालते हैं। उन्हीं महान् त्यागी पुरुषों का उत्तम चिन्तन इस सूत्र में दिया है।
मूल पाठ इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे तसा थावरा पाणा ते सयं समारभंति, अन्नेण वि समारंभाति, अण्णं वि समारभंतं समणुजाणंति । इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते सयं परिगिण्हंति, अन्नेण वि परिगिण्हावेंति, अन्नपि परिगिण्हतं समणुजाणंति । इह खलु गारत्था सारंभा सपरिगहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे, जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा एतेसि चेव निस्साए बंभवेरवासं वसिस्सामो, कस्स णं तं हेउं ? जहां पुव्वं तहा अवरं, जहा अवरं तहा पुन्वं, अंजू एते अणुवरया अणुवट्ठिया पुणरवि तारिसगा चेव। जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, दुहओ पावाई कुव्वंति इति संखाए दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाणो इति भिक्खू रोएज्जा। से बेमि पाइणं वा ६ जाव एवं से परिण्णायकम्मे, एवं से ववेयकम्मे, एवं से विअंतकारए भवतीतिमक्खायं ॥ सू० १४ ॥
संस्कृत छाया इह खलु गृहस्थाःसारम्भाः सपरिग्रहाः, सन्त्येके श्रमणाः माहना अपि सारम्भाः सपरिग्रहाः, ये इमे त्रसाः स्थावराश्च प्राणाः तान् स्वयं समारभन्ते, अन्येनाऽपि समारंभयान्ति, अन्यमपि समारंभमाणं समनजानन्ति । इह खलु
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