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प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
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वस्तुतत्त्व को जानने वाले विज्ञ साधक अपने सुख-दुःख के समान विश्व के समस्त जीवों के सुख-दुःखों को जानकर उन्हें कदापि पीड़ित एवं दुःखित करने का विचार तक नहीं करते । वे यह भलीभाँति समझ लेते हैं कि जैसे कोई दुष्ट व्यक्ति लाठी, डंडे, मुक्के, ढेले या ईंट के टुकड़े से या ठीकरे से मुझे मारता है, पीटता है, या गाली देता हैं, अंगुली दिखाकर मुझे धमकाता या डाँटता-फटकारता है, चाबुक से प्रहार करता है, मुझे संताप पहुँचाता, क्लेश करता है, या किसी प्रकार से मुझे उद्विग्न करता है, घबराहट में डालता है, या कोई उपद्रव करता है, तो जैसे मुझे दुःख होता है, अधिक क्या कहें, एक रोम भी अगर कोई उखाड़ता है तो मैं तिलमिला उठता हूँ, मैं हिंसाजनक दुःख महसूस करता हूँ, मुझे कोई गाली दे; जबरन गुलाम बनाए, अपनी आज्ञा में जबर्दस्ती चलाए तो मुझे दुःख का अनुभव होता है, इसी प्रकार संसार के समस्त प्राणी, भूत, जीव एवं सत्त्व को डंडे आदि से मारने-पीटने, सताने, दुःखी करने, यहाँ तक कि उनका एक रोम भी उखाड़ने से वे महान् हिंसामय दुःख का संवेदन करते हैं। उन्हें जबरन अपने अधीन बनाकर आज्ञा में चलाने से, उन्हें नौकर या गुलाम बनाने से, उन्हें डराने, धमकाने से भी उन्हें उतने ही दुःख, पीड़ा या क्लेश का अनुभव होता है। अतः किसी भी प्राणी को मारना-पीटना, गाली देना, डराना-धमकाना, जबरन उसे दासी-दास आदि बनाना या जबर्दस्ती पकड़कर कैद कर देना, सताना या व्यथित करना, किसी भी प्रकार से उन्हें हैरान करना कथमपि उचित नहीं है। वे महान पुरुष (साधक) इस उत्तम विज्ञान के कारण पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस; इन षट्काय के जीवों को कष्ट देने या हानि पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों का त्याग कर देते हैं। ऐसे महान् पुरुष ही धर्म के रहस्य को जानने वाले हैं । क्योंकि भूतकाल में केवलज्ञानी, निर्वाणी सागर आदि जितने भी तीर्थकर हो चुके हैं, वर्तमान में ऋषभ, अजित आदि जो तीर्थकर हुए हैं तथा भविष्य में पद्मनाभ, अमम, शूरसेन आदि जो भी तीर्थंकर होंगे, उन सब तीर्थंकरों का यही कथन, प्ररूपण एवं आदेश है, संदेश या उपदेश है कि किसी भी जीव को मारना, जबरन अपनी आज्ञा में चलाना, अपना गुलाम बनाना, उसे संताप देना या उद्विग्न करना उचित नहीं है, यही अहिंसाधर्म है, जो शाश्वत है, नित्य है, ध्रुव है, सदा एकरूप से स्थित एवं उत्पाद-विनाश से रहित है। उन महापुरुषों ने केवलज्ञान के प्रकाश में इस शाश्वत धर्म का प्रतिपादन किया है।
इस धर्म की रक्षा के लिए शुद्ध संयमी साधु दतौन आदि से अपने दाँतों को साफ नहीं करते, न शोभा के लिए आँखों में अंजन लगाते हैं, न ही दवा लेकर वमन और विरेचन करते हैं तथा वे अपने कपड़ों को धूप आदि से सुवासित नहीं करते, न रोग के उपशमनार्थ धूप आदि देते हैं और न धूम्रपान ही करते हैं । बयालीस
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