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प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः सन्त्येके श्रमणाः माहना अपि सारम्भाः सपरिग्रहाः, य इमे कामभोगाः सचित्ताः वा अचित्ताः वा तान् स्वयं परिगृह्णन्ति, अन्येनाऽपि परिग्राहयन्ति, अन्यमपि परिगृह्णन्तं समनुजानन्ति । इह खलु गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः, सन्त्येके श्रमणा: माहना अपि सारम्भाः सपरिग्रहाः अहं खलु अनारम्भः अपरिग्रहः, ये खलु गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः सन्त्येके श्रमणा माहना अपि सारम्भाः सपरिग्रहाः एतेषां चैव निश्रयेण ब्रह्मचर्यवासं वत्स्यामि । कस्य हेतोः ? यथा पूर्व तथा अवरं, यथा अवरं तथा पूर्वम्, अञ्जसा एते अनुपरता: अनुपस्थिताः पुनरपि तादृशा एव । ये खलु गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः सन्त्येके श्रमणाः माहना अपि सारम्भाः सपरिग्रहाः द्विधाऽपि पापानि कुर्वन्ति, इति संख्याय द्वयोरप्यन्तयोरादिश्यमानः इति भिक्षुः रीयेत तद् ब्रवीमि प्राच्यां वा यावत् एवं स परिज्ञातकर्मा, एवं स व्यपेतकर्मा, एवं स व्यन्तकारको भवति इत्याख्यातम् ।। सू० १४ ॥
___ अन्वयार्थ (इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा संति) इस लोक में गृहस्थ आरम्भ तथा परिग्रह से युक्त होते हैं, क्योंकि वे उन क्रियाओं को करते हैं, जिनसे जीवों का संहार होता है और वे दास-दासी, गाय-भैंस आदि पशु एवं धन-धान्य आदि परिग्रह रखते हैं। (एगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिगहा) कई श्रमण और ब्राह्मण भी आरम्भ एवं परिग्रह से युक्त होते हैं, क्योंकि वे भी गृहस्थ के समान ही सावद्यक्रिया करते हैं और धन-धान्य तथा द्विपद-चतुष्पद आदि परिग्रह रखते हैं। (जे इमे तसा थावरा पाणा ते सयं समारभंति अन्नेण वि समारंभावेंति अण्णं वि समारंभंतं समणुजाणंति) वे गृहस्थ, श्रमण तथा ब्राह्मण त्रस तथा स्थावर प्राणियों का स्वयं आरंभ करते हैं, दूसरे के द्वारा भी आरम्भ कराते हैं और आरम्भ करते हुए अन्य व्यक्ति को अच्छा समझते हैं। (इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा) इस जगत् में गृहस्थ आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं और कई श्रमण तथा ब्राह्मण भी आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं। (जे इमे कामभोगा सचित्ता अचित्ता वा ते सयं परिगिल्लन्ति, अन्नेण वि परिगिण्हावेति, अन्नं वि परिगिण्हतं समणुजाणंति) वे गृहस्थ एवं श्रमण तथा ब्राह्मण (माहन) सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार के काम-भोगों का ग्रहण स्वयं करते हैं और दूसरे के द्वारा भी कराते हैं तथा ग्रहण करते हुए को अच्छा समझते हैं। (इह खलु गारत्था सारंभा सपरिगहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा) इस जगत में गृहस्थ आरम्भी एवं परिग्रही होते हैं, तथा कई श्रमण एवं ब्राह्मण भी आरम्भ-परिग्रह से
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