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सूत्रकृतांग सूत्र उम्र अधिक होने पर ये सब जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, (तं जहा--आउओ बलाओ वण्णाओ तयाओ छायाओ सोयाओ जाव फासाओ) वह मनुष्य आयु, बल, वर्ण, त्वचा, कान्ति कान तथा स्पर्श-पर्यन्त सभी पदार्थों से क्षीण (हीन) हो जाता है। (सुसंधितो संधो विसंधी भवइ) उसकी सुघटित (गठी हुई) दृढ़ (मजबूत) सन्धियाँ (जोड़) ढीली हो जाती हैं, (गाए वलियतंरगे भवइ) उसके शरीर की चमड़ी सिकुड़कर तरंग की रेखा के समान हो जाती है या चमड़ी लटक जाती है, (किण्हा केसा पलिया भवंति) उसके काले बाल सफेद हो जाते हैं (तं जहा-जंपि य आहारोवइयं उरालं इमं सरीरगं एयंपि अणुपुट्वेणं विप्पजहियव्वं भविस्सइ) जैसे कि यह जो आहार से वृद्धिंगत उत्तम शरीर है, इसे भी क्रमशः अवधि पूरी होने पर छोड़ देना पड़ेगा । (एयं संखाए से भिवखू भिक्खायरियाए समुट्ठिए दुहओ लोगं जाणेज्जा) यह जानकर भिक्षावृत्ति को स्वीकार करने हेतु उद्यत साधु लोक को दोनों प्रकार से जान ले, (तं जहा--जीवा चेव अजीवा चेव तसा चेव थावरा चेव) जैसे कि लोक जीवरूप है और अजीवरूप है, सरूप है और स्थावररूप है।
व्याख्या
भिक्षाचर्या के लिए उद्यत साधु का यथार्थ चिन्तन
इस सूत्र में भिक्षाचर्या के लिए उद्यत साधक का यथार्थ वस्तुस्वरूपचिन्तन शास्त्रकार ने प्रस्तुत किया है। इस जगत में सभी प्रकार के विभिन्न वर्ग के मनुष्य हैं, उनके पास थोड़ा हो या अधिक जन और जनपद सम्बन्धी परिग्रह (सम्पत्ति रूप) होता है। पहले बताये हुए कुलों में से किसी भी कुल में जन्म लेकर कोई-कोई व्यक्ति भोगों या सांसारिक पदार्थों का त्याग करके भिक्षाचर्या के लिए उद्यत हो (गृहत्यागी बन) जाते हैं। ऐसे गृहत्यागी भिक्षु दो प्रकार से बनते हैं--एक तो ऐसे हैं, जिनके पास धनधान्य आदि साधन भी प्रचुर मात्रा में होते हैं, तथा जिनका परिवार भी भरा-पूरा होता है । दूसरे वे होते हैं, जिनके पास न तो धन-धान्यादि साधन प्रचुर मात्रा में होते हैं, और न ही उनका लम्बा-चौड़ा परिवार होता है। फिर भी दोनों प्रकार के साधक भिक्षाचर्याजीवी एवं गृहत्यागी होते हैं। दोनों ही विद्यमान और अविद्यमान परिवार एवं धन-धान्यादि साधनों के ममत्व का त्याग करते हैं । त्यागवृत्ति से दोनों साधुजीवन अंगीकार करते हैं । वे पहले से ही इस बात को भली-भाँति हृदयंगम कर लेते हैं कि इस जगत में मनुष्य मोह में पड़कर अपने से भिन्न पदार्थों (पर-भावों) को 'ये मेरे हैं' इस प्रकार ममत्ववश अपने मानते हैं। सांसारिक पदार्थों को अपने मानने वाले वे लोग 'यह खेत, मकान, जमीन, जायदाद, धन-सम्पत्ति, चाँदी-सोना, वस्त्र-बर्तन, रत्न, हीरा, पन्ना, माणक, मोती, मूंगा, लाल आदि मेरा है, इस प्रकार का ममत्व करते हैं । इतना ही नहीं, पाँचों इन्द्रिय-विषयों के साधनों के मोह-ममत्व में फंसे रहते
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