Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
८ १
समुपज्जेज्जा अणिट्ठे जाव णो सुहे) अथवा भय से मेरी रक्षा करने वाले उन ज्ञातिजनों को ही कोई दुःख या रोग हो जाय, जो अनिष्ट, अप्रिय और असुखकर हो, ( से हंता अहमेतसि भयंताराणं णाययाणं इमं अन्नयरं दुक्खं रोयातंक परियाइयामि अणिट्ठ जाव जो सुहे) तो मैं भय से रक्षा करने वाले इन ज्ञातिजनों के अनिष्ट, दुःख या रोग को बाँट कर ले लूँ, (मा मे दुक्खंतु जाव मा मे परितप्पंतु वा ) जिससे कि मेरे ये ज्ञातिजन दुःख तथा संताप का अनुभव न करें, (इमाओ अण्णयराओ दुक्खाओ रोयातंकाओ परिमोएमि अट्ठाओ ) मैं इनको दु:ख तथा अनिष्ट रोग से मुक्त कर दूँ, (एवमेव णो लद्धपुच्वं भवइ ) तो यह मेरी इच्छा कदापि पूर्ण नहीं हो सकती है । ( अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परियाइयइ )
दूसरे के दुःख को दूसरा बाँटकर नहीं ले सकता, (अन्नेण कडं अन्नो नो पडिसंवेदेइ) दूसरे
के कर्म का फल दूसरा नहीं भोगता है, (पत्तेयं जायइ पत्तेयं मरइ पत्तेयं चयइ पत्तेयं उववज्जइ पत्तेयं झंझा पत्तेयं सन्ना पत्तेयं मन्ना एवं विन्नू वेयणा ) मनुष्य अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपनी सम्पत्ति का त्याग करता है, अकेला ही अपनी सम्पत्ति का उपभोग या स्वीकार करता है, अकेला ही कषायों को ग्रहण करता है, अकेला ही पदार्थ को समझता है, अकेला ही चिन्तन-मनन करता है, अकेला ही विद्वान् होता है, और अकेला ही सुख-दुःख भोगता है, ( इह खलु णाइसंजोगा जो तानाए जो सरणाए ) इस लोक में ज्ञातिजनों का संयोग दुःख से रक्षा करने और मनुष्य को शान्ति या शरण देने में समर्थ नहीं है । ( पुरिसे वा एगया पुव्विं गाइसंजोए विप्पजहति) कभी तो मनुष्य पहले ज्ञातिजनों के संयोग को छोड़कर चल देता है, ( णाइसंजोगा वा एगया पुव्विं पुरिसे विप्पजहंति) और कभी ज्ञातिसंयोग मनुष्य को पहले छोड़ देता है । ( अन्ने खलु णाइसंजोगा अन्नो अहमंसि) अतः ज्ञातिजन-संयोग भिन्न है, मैं भिन्न हूँ । ( से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहिं णाइसंजोगेह मुच्छामो ?) तब फिर हम इस अपने से पृथक ज्ञातिजनसंयोग में क्यों आसक्त हों ? ( इति संखाए वयं णाइसंजोगं विप्पजहिस्सामो) यह जानकर अब हम ज्ञातिजनसंयोग का त्याग कर देंगे । ( से मेहावी जाणेज्जा बहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं ) परन्तु बुद्धिमान पुरुष को यह निश्चित जानना चाहिए कि ज्ञातिजनसंयोग तो बाह्य वस्तु है, उससे भी निकटवर्ती सम्बन्धी ये सब हैं, (तं जहा - हत्था मे पाया मे बाहू मे उरू मे उदरं मे सोसं मे सोलं मे आऊ मे बलं मे वण्णो मे तया मे छाया मे सोयं मे चक्खू मे घाणं मे जिन्भा मे फासा मे ममाइज्जइ) जैसे कि मेरे हाथ हैं, मेरे पैर हैं, मेरी बाहें हैं, मेरी जांघें हैं, मेरा पेट है, मेरा सिर है, मेरा शील (आचारविचार ) है, मेरी आयु है, मेरा बल है, मेरा वर्ण है, मेरी चमड़ी है, मेरी कान्ति (छाया) है, मेरे कान हैं, मेरे नेत्र हैं, मेरी नासिका है, मेरी जीभ है, मेरी स्पर्शेन्द्रिय है, इस प्रकार ( मेरा- मेरा करके) प्राणी ममत्व करता है, ( वयाउ पडिजूरइ ) परन्तु
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