________________
प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ अर्थात्-यह अज्ञानी जीव स्वयं सुखप्राप्ति तथा दुःखपरिहार करने में समर्थ नहीं है, यह स्वर्ग या नरक में जाता है तो ईश्वर की प्रेरणा से ही जाता है।
ईश्वरवादी जैसे समस्त जगत् का कारण ईश्वर को मानता है, वैसे ही आत्माद्वैतवादी एक आत्मा (ब्रह्म) को ही सारे जगत् का कारण मानना है। जैसा कि वे कहते हैं
एक एव हि भूतात्मा, भूते-भतेव्यवस्थितः।
एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। अर्थात्-सारे विश्व में एक आत्मा है, वही प्रत्येक प्राणी में स्थित है। वह एक होता हुआ भी विभिन्न जलपात्रों के जल में प्रतिविम्बित चन्द्रमा के समान प्रत्येक जीव में भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है । जैसा कि श्रुति में कहा
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्चभाव्यम् । ___ इस जगत् में जो कुछ हो चुका है, या जो होने वाला है, वह सब आत्मा (पुरुष) ही है।
जैसे मिट्टी से बने हुए सभी पात्र मृण्मय कहलाते हैं, तथा तन्तु के द्वारा बने हुए सभी वस्त्र तन्तुमय कहलाते हैं, इसी प्रकार समस्त विश्व आत्मा द्वारा निर्मित होने के कारण आत्ममय है।
ईश्वर कर्तृत्ववादियों या आत्मद्वैतवादियों द्वारा निम्नोक्त तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं, जिन्हें शास्त्रकार ने इस सूत्र में अंकित किया है
'इइ खलु धम्मा पुरिसादिया से जहाणामए गंडे सिया"पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति ।"
संक्षेप में इन सब दृष्टान्तों का आशय यह है कि जैसे शरीर में उत्पन्न फोड़ा शरीर में ही स्थित रहता है, मन में उत्पन्न उद्वेग अन्त में मन में ही व्याप्त होकर रहता है, पृथ्वी से उत्पन्न वल्मीक पृथ्वी पर ही स्थित रहता है, जल से उत्पन्न पोखर या बुलबुला अन्ततोगत्वा जल में ही लीन होकर रहता है, किन्तु शरीर को छोड़कर फोड़ा, मन को छोड़कर उद्वेग, पृथ्वी को छोड़कर वल्मीक तथा वृक्ष, एवं जल को छोड़कर पोखर तथा बुलबुला अलग नहीं रह सकता, इसी तरह समस्त पदार्थ आत्मा को छोड़कर अलग नहीं रह सकते हैं, किन्तु आत्मा में ही वृद्धि-ह्रास को प्राप्त करते रहते हैं, यह आत्माद्वैतवादी का मत है। इसी प्रकार ईश्वरकत त्ववादी भी उपर्युक्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org