Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
नियम नहीं है। अतएव घट का कर्ता कुम्भार और पट का कर्ता जुलाहा माना जाता है, ईश्वर नहीं। यदि बुद्धिमान कर्ता ईश्वर ही है तो फिर ईश्वरकर्तृत्ववादी घट और पट का कर्ता भी ईश्वर को ही क्यों नहीं मानते ?
विशिष्ट अवयव रचना भी बुद्धिमान् कर्ता के बिना नहीं हो सकती, यह भी कोई नियम नहीं है। क्योंकि घट, पट के समान वल्मीक भी विशिष्ट अवयव रचना से युक्त होता है, परन्तु उसका कर्ता कुम्भार आदि के सामान कोई बुद्धिमान पुरुष नहीं होता। अतः शरीर और जगत् आदि की विशिष्ट अवयव रचना को देखकर उस पर से अदृष्ट ईश्वर की कल्पना करना युक्तिविरुद्ध है। ___ इसी तरह आत्मावतवाद भी युक्तिरहित है। क्योंकि इस जगत् में जब एक आत्मा के सिवाय दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं, तब फिर मोक्ष के लिए प्रयत्न करना, शास्त्रों का अध्ययन करना आदि बातें निरर्थक ही सिद्ध होंगी तथा सारे जगत की एक आत्मा मानने पर जगत् में जो प्रत्यक्ष विचित्रता देखी जाती है, वह भी सिद्ध नहीं हो सकेगी। बल्कि एक के पाप से दूसरे सब पापी और एक की मुक्ति से दूसरे सबकी मुक्ति एवं एक के दुःख से दूसरे सबको दुःखी मानना पड़ेगा। जो कि आत्माद्वैतवादी को अभीष्ट नहीं है । अतः युक्तिरहित आत्माद्वतवाद को भी मिथ्या समझना चाहिए।
सारांश पूर्वोक्त रीति से ईश्वरकारणतावाद और आत्माद्वैतवाद ये दोनों मिथ्या सिद्ध हो जाते हैं, तथापि इनके मतानुयायी इन मतों के फंदे में फंस कर उसी तरह मुक्त नहीं हो पाते, जिस तरह पिंजरे में फँस जाने पर पक्षी उससे मुक्त नहीं हो पाता। ये लोग अपने भ्रान्त मतों का उपदेश देकर दूसरों को भी भ्रष्ट करते हैं और स्वयं भी भवसागर से पार नहीं होते। वे बुद्धिभ्रष्ट लोग कहते हैं -
यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् ।
आकाशमिव पंकेन, नाऽसौ पापेन लिप्यते ॥ अर्थात्- 'जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह यदि सारे जगत् की हत्या कर दे तो भी वह उस पाप से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे आकाश कीचड़ से लिप्त नहीं होता।'
इस प्रकार पाप और फिर उस पर पर्दा-यह दोहरा पाप करने के कारण ईश्वरकारणतावादी या आत्माद्वैतवादी विषय-भोगों या पापों में
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