Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
आधार लेकर टिकता है, ( एवमेव धम्मा पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठेति) इसी तरह सभी धर्म - सभी पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, ईश्वर से ही वृद्धिंगत होते हैं, ईश्वर के ही अनुगामी हैं एवं ईश्वर को ही आधार रूप से आश्रय लेकर स्थित रहते हैं । ( से जहाणामए अरई सिया सरोरेजाया सरीरे संबुडढा सरीरे अभिसमण्णागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठइ) जैसे अरति ( मन का उद्व ेग ) शरीर में ही उत्पन्न होती है, शरीर में ही बढ़ती है, शरीर की अनुगामिनी बनती है, और शरीर को ही आधाररूप से आश्रय लेकर टिकी रहती है, (एवमेव धम्मा अवि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठेति ) इसी प्रकार समस्त पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होकर उसी के आश्रय से स्थित हैं । ( से जहाणामए वम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंवुड्ढे पुढविमभिसमण्णागर पुढविमेव अभिभूय चिट्ठइ) जैसे वल्मीक (बांबी) पृथ्वी से ही उत्पन्न होता है, पृथ्वी में ही बढ़ता है और पृथ्वी का ही अनुगामी है तथा पृथ्वी काही आश्रय लेकर रहता है, ( एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति ) इसी तरह सारे पदार्थ इश्वर से उत्पन्न होकर आखिरकार ईश्वर में ही लीन होकर रहते हैं । ( से जहाणामए रुक्खे सिया पुढविजाए पुढविसंबुड्ढे, पुढविभिमण्णा पुढविमेव अभिभूय चिट्ठइ) जैसे कि कोई वृक्ष मिट्टी से ही पैदा होता है, मिट्टी में बढ़ता है, मिट्टी का ही अनुगामी होता है और आखिरकार मिट्टी में लीन होकर स्थित रहता है, ( एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठेति) इसी तरह सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होकर अन्त में उसी में व्याप्त होकर रहते हैं । (से जहाणामए उदगपुक्खले सिया उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठइ) जैसे जल का पुष्कर (तालाब, पोखर ) उदक - जल से ही उत्पन्न होता है, जल से ही वृद्धिगत होता है, जल का ही अनुगामी होकर आखिरकार जल को ही व्याप्त करके रहता है, ( एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति ) इसी प्रकार समस्त पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होकर अन्त में उसी में लीन होकर रहते हैं । (से जहाणामए जलबुब्बुए उदगजाए जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठइ) जैसे कोई पानी का बुलबुला (बुबुद) पानी से ही पैदा होता है और अन्त में पानी में ही विलीन हो जाता है, ( एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति ) इसी प्रकार सभी पदार्थ ईश्वर से उत्पन्न होते हैं और अन्त में उसी में व्याप्त होकर रहते हैं । (जं पि य इमं समणाणं णिग्गंथाणं उद्दिट्ठे पणीयं वियंजियं दुवालसंगं गणिपिडगं, तं जहाआयारो सूयगडो जाव दिट्ठिवाओ सव्वमेयं मिच्छा ) यह जो श्रमण निर्ग्रन्थों के द्वारा कहा हुआ, रचा हुआ, या प्रकट किया हुआ गणियों ( आचार्यों) का ज्ञानपिटारा - ज्ञानभंडार है, जो आचारांग सूत्रकृतांग से लेकर दृष्टिवाद तक बारह अंगों में विभक्त है, यह सारा मिथ्या है, झूठा है । (एयं ण तहियं एयं ण आहातहियं ) ये सब सत्य
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