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सूत्रकृतांग सूत्र
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नैतत्तथ्यं, नैतद् याथातथ्यम् । इदं सत्यं इदं तथ्यं इदं याथातथ्यम् एवं संज्ञां कुर्वन्ति, ते एवं संज्ञां संस्थापयन्ति, ते एवं संज्ञामुपस्थापयन्ति, तदेवं ते तज्जातीयं दुःखं नैव त्रोटयन्ति शकुनिः पञ्जरं यथा । ते नो एवं विप्रतिवेदयन्ति, तद्यथा क्रियादिर्वा यावद् अनिरय इति । एवमेव ते विरूपरूपैः कर्मसमारम्भैः विरूपरूपान् कामभोगान् समारभन्ते भोगाय । एवमेव तेनार्या : विप्रतिपन्नाः, एवं श्रद्दधानाः यावद् इति ते नोऽत्रचे नो पाराय अन्तरा कामभोगेषु विषष्णाः । इति तृतीयः पुरुषजातः ईश्वरकारणिक इत्याख्यातः ॥ सू० ११ ॥
अन्वयार्थ
( अहावरे तच्चे पुरिसजाए ईसरकारणिए इति आहिज्जइ) दूसरे पंचमहाभूतिक पुरुष के पश्चात् अब तीसरा पुरुष ईश्वरकारणिक कहलाता है | ( इह खलु पाईणं वा ६ संतेगइया मणुस्सा भवंति ) इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में अनेक मनुष्य होते हैं, (अणुपुवेणं लोयमुववन्ना) जो क्रमशः इस लोक में उत्पन्न हुए हैं । (तं जहा - वेगे आरिया जाव ) जैसे कि उनमें से कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य, इत्यादि प्रथम सूत्र में उक्त सब वर्णन यहाँ जान लेना चाहिए । ( तेसि च णं एगें महंते राया भवइ जाव सेणावइपुत्ता) उनमें से कोई एक श्रेष्ठ पुरुष महान् राजा होता है, उसकी सभा का वर्णन भी प्रथम सूत्रोक्त रूप से जान लेना चाहिए। ( तेसि च णं एगइए सड्ढी भवइ ) इन पुरुषों में से कोई एक धर्मश्रद्धालु होता है । ( तं समणा य माहणा य गमणाए संपहारिस) उस धर्म श्रद्धालु पुरुष के पास तथाकथित श्रमण और माहन जाने का निश्चय करते हैं । (जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए सुपन्नत्ते भवइ जाव) वे जाकर कहते हैंहे भाता ! मैं आपको सच्चा धर्म सुनाता हूँ, उसे ही आप सत्य समझें । (इह खलु धम्मा पुरिसादिया ) इस जगत में जड़ और चेतन जितने भी पदार्थ हैं, वे सब पुरुषादिक हैं, सबका मूल कारण ईश्वर या आत्मा है । ( पुरिसोत्तरिया) वे सब पुरुषोत्तरिक हैं, अर्थात् ईश्वर ही उनका संहारकर्ता है या ईश्वर या आत्मा ही सब पदार्थों का कार्य है । ( पुरिसप्पणीया) सभी पदार्थ ईश्वर के द्वारा रचित हैं, ( पुरिससंभूया ) ईश्वर से ही उत्पन्न हैं - उनका जन्म हुआ है, ( पुरिसप्पजोइया) सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रकाशित हैं, ( पुरिसमभिसमण्णागया) सभी पदार्थ ईश्वर के अनुगामी हैं, ( पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति ) सभी पदार्थ ईश्वर का आधार -- आश्रय लेकर टिके हुए हैं । (से जहाणामए गंडे सिया) जैसे प्राणी के शरीर में उत्पन्न फोड़ा ( गुमड़ा ), ( सरीरे जाए सरीरे संवुड ढे सरीरे अभिसमण्णागए सरीरमेव अभिभूय चिट्ठइ) शरीर से ही उत्पन्न होता है, शरीर में ही बढ़ता है, शरीर का ही अनुगामी बनता है और शरीर का ही
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