Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
अन्वयार्थ (अह) अब या कल्पना करो, (पुरिसे) कोई पुरुष (पुरित्थिमाओ दिसाओ तं पुक्खरिणीं आगम्म) पूर्व दिशा से उस पुष्करिणी (बावड़ी) के पास आकर (तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा) उस पुष्करिणी के किनारे पर खड़ा होकर (तं महं एगं • पउमवरपोंडरीयं पासइ) उस महान उत्तम एक श्वेतकमल को देखता है। (अणु
पुठ्ठियं ऊसियं जाव पडिरूवं) कि यह कमल अनुक्रम से उत्थित है । अर्थात् जिस'जिस स्थान पर जैसी-जैसी रचना होनी चाहिए, वैसी ही उतार-चढ़ावदार रचना है । तथा यह पानी और कीचड़ पर स्थित है तथा पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त अतीव मनोहर, दर्शनीय तथा सुन्दर है। (तए णं से पुरिसे एवं वयासी) उस कमल को देखकर उस पुरुष ने इस प्रकार कहा ---(अहं पुरिसे असि) मैं पुरुष हूँ, (खेयन्ने) खेद यानी मार्ग में होने वाले श्रम को जानता हूँ, (कुसले) मैं हित की प्राप्ति और अहित के त्याग करने में निपुण हूँ, (पंडिए) मैं पाप से निवृत्त हूँ या सद्-असद् विवेक से सम्पन्न हूँ (वियत्ते) मैं बालभाव से निवृत्त हूँ अर्थात् मैं प्रौढ़ एवं परिपक्व हूँ। (मेहावी) मैं बुद्धिशाली हूँ (अबाले) मैं बाल नहीं हूँ, अर्थात् युवक हूँ (मग्गत्ये) मैं सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग पर स्थित हूँ (मग्गविऊ) मैं मार्ग का वेत्ता है। (मग्गस्स गइपरक्कमण्ण) जिस मार्ग पर चलकर जीव अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करता है, उसे जानता हूँ। (अहमेयं पउमवरपोंडरीयं) मैं इस उत्तम श्वेतकमल को (उनिक्खिस्सामि) उखाड़कर ले आऊगा (त्ति कटु) इस प्रकार अपनी शेखी बघारता हुआ (इइ बुया) यह कहकर (से पुरिसे तं पुक्खरिणी अभिक्कमेइ) वह पुरुष उस पुष्करिणी में प्रवेश करता है। (जावं जावं च णं अभिक्कमेइ) वह ज्यों-ज्यों उस पुष्करिणी में आगे बढ़ता जाता है, (तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेये) त्यों-त्यों उस पुष्करिणी में उसे अधिकाधिक पानी और कीचड़ का सामना करना पड़ता है । (तीरं पहोणे) वह व्यक्ति किनारे से हट चुका है और (पउमवरपोंडरीए अपत्ते) और उस श्वेतकमल तक पहुँच नहीं पाया है। (णो हव्वाए णो पाराए) वह इस पार का रहता है, न उस पार का । (अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि निसण्णे पढमे पुरिसजाए) किन्तु वह पुष्करिणी के बीच में ही गहरे कीचड़ में फँसकर अत्यन्त क्लेश पाता है । यह प्रथम पुरुष की कथा है ॥२॥
(अहाव रेदोच्चे पुरिसजाए) यहाँ से अब दूसरे पुरुष का वृत्तान्त बताया जाता है। (अह पुरिसे दक्षिणाओ दिसाओ तं पुक्खरिणी आगम्म) पहले पुरुष के कीचड़ में फंस जाने के बाद दूसरा पुरुष दक्षिण दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर (तीसे पुक्खरिणीए तोरे ठिच्चा) उस पुष्करिणी के दक्षिण तट पर खड़ा होकर (तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं पासइ) उस विशाल एक श्रेष्ठ श्वेतकमल (पुण्डरीक) को देखता है। (अणुपुबुठ्ठियं पासादीयं जाव पडिरूवं) जो विशिष्ट एवं क्रमबद्ध रचना से युक्त,
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