Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
अधिकाधिक कीचड़ का सामना करना पड़ा। (जाव....णिसन्ने) अतः वह वहीं कीचड़ में फंसकर रह गया और अत्यन्त दुःखी हो गया । वह न इस पार का रहा, न उस पार का। उसकी स्थिति चक्की के दो पाटों के बीच में अनाज की-सी हो गई। (तच्चे पुरिसजाए) यह तीसरे पुरुष की कष्टकथा है ॥४॥
(अहावरे चउत्थे पुरिसजाए) एक-एक करके तीन पुरुषों के वर्णन के बाद अब चौथे पुरुष का वर्णन किया जाता है । (अह पुरिसे उत्तराओ दिसाओ आगम्म) तीसरे पुरुष के पश्चात् एक पुरुष (चौथा व्यक्ति) उत्तर दिशा से आकर (तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा) उस पुष्करिणी के तट पर खड़ा होकर (तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं पासइ) उस एक विशाल श्वेतकमल को देखता है, (अणुपुवुठ्ठियं जाव पडिरूवं) जो विशिष्ट रचना से युक्त, पूर्वोक्त गुणों से सम्पन्न तथा मनोहर है । (ते तत्थ तिनि पुरिसजाए पासइ) तथा वह उन तीनों पुरुषों को भी देखता है, (पहीणे तीरं अपत्ते जाव सेयंसि णिसन्ने) जो किनारे से बहुत दूर हट चुके हैं, और श्वेतकमल तक भी नहीं पहुँच सके हैं, किन्तु पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गये हैं। (तए णं से पुरिसे एवं वयासी) इसके पश्चात् उन तीनों को देखकर चौथे पुरुष ने इस प्रकार कहा--(अहो णं इमे परिसा अखेयन्ना जाव णो मग्गस्स गइपरक्कमण्णू ) ओ हो ! ये तीनों पुरुष खेदज्ञ नहीं हैं, कुशल, पंडित तथा पूर्वोक्त गुणों से युक्त नहीं हैं, न ये मार्ग पर स्थित हैं, न मार्गवेत्ता हैं और न ही मार्ग की गतिविधि, उद्देश्य एवं पराक्रम को ही जानते हैं। (जण्णं एए परिसा एवं मन्ने अम्हे एयं पउमवर पोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो) फिर भी ये तीनों समझते हैं कि हम इस पद्मप्रवरपुण्डरीक कमल को उखाड़कर ले आएँगे। (णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीय एवं उनिक्खेयव्वं जहा णं एए पुरिसा मन्ने) मगर यह श्वेतकमल इस तरह कदापि नहीं उखाड़कर लाया जा सकता, जैसा कि ये लोग मान रहे हैं। (अहमंसि खेयन्ने जाव मग्गस्स गइयरक्कमण्णू) अलबत्ता, मैं खेदज्ञ हूँ, कुशल हूँ, पण्डित हूँ, मार्गस्थ हूँ, मार्गवेत्ता हूँ, जवां मर्द हैं और जिस मार्ग से चलकर जीव अपने इष्ट देश को प्राप्त कर लेता है, उसे जानता हूँ। (अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कटु) मैं इस प्रधान श्वेतकमल को उखाड़कर ले आऊँगा, इसी अभिप्राय से ही तो मैं कृतसंकल्प होकर यहाँ आया हूँ (इइ बुच्चा से पुरिसे तं पुक्खरिणी जावं जावं च णं अभिक्कमे) यों डींग मारकर वह (चौथा ) व्यक्ति भी उस पुष्करिणी में उतरा और ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया, (तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए जाव णिसन्ने) त्यों त्यों उसे अधिकाधिक पानी और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया। वह पुरुष उस पुष्करिणी के बीच में ही भारी कीचड़ में फंसकर दुःखी हो गया। अब न तो वह इस पार का रहा और न उस पार का रहा ! (चउत्थे पुरिसजाए) चौथे पुरुष का भी यही हाल हुआ ॥५॥
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