Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
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पदार्थ मिथ्या हैं। इनकी कल्पना करना भी व्यर्थ है। स्वर्ग, नरक आदि अप्रत्यक्ष पदार्थों की कल्पना करना भी मिथ्या है। वास्तव में इसी लोक में जो कुछ उत्तम सुख भोगा जाता है, वही स्वर्ग है तथा भयंकर रोग, शोक आदि पीड़ाएँ भोगना नरक हैं, इनसे भिन्न स्वर्ग या नरक कोई लोक-विशेष नहीं हैं। अतः स्वर्गलोक की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की तपस्या करना, व्यर्थ कष्ट सहना, शरीर को निरर्थक क्लेश देना तथा नरक के भय से इहलौकिक सुख का त्याग करना अज्ञान है, मूढ़ता है। शरीर में जो चैतन्य की अनुभूति होती है, वह शरीररूप में परिणत पंच महाभूतों का ही गुण है, किसी अप्रत्यक्ष आत्मा का नहीं। शरीर का नाश होने पर उस चैतन्य का भी नाश हो जाता है। अतः नरक या तिर्यञ्च योनि में जन्म लेकर कष्ट सहने का भय करना भी अज्ञान है।
__ यद्यपि सांख्यवादी पूर्वोक्त पाँच महाभूत तथा छठे आत्मा को भी मानते हैं, तथापि वे पाँच महाभूतिकों से भिन्न नहीं हैं, क्योंकि सांख्यदर्शन आत्मा को निष्क्रिय मानकर पंचमहाभूतों को उत्पन्न करने वाली प्रकृति को ही समस्त कार्यों का कर्ता मानता है। आत्मा को स्वीकार न करने वाले पाँचमहाभूतिक नास्तिक और आत्मा को निष्क्रिय मानने वाले सांख्यवादी दोनों ही एक तरह से पाँचमहाभूतिक हैं।
___ इसलिए सांख्यदर्शन पाँच महाभूतों से भिन्न छठा आत्म तत्त्व भी स्वीकार करता है। सांख्यदर्शन का कथन है कि सत् का कभी विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती। सांख्यदर्शन के अनुसार आत्मा कुछ भी नहीं करता, सब कुछ प्रकृति करती है । सत्त्व, रजस् और तमस् ये तीन गुण संसार के मूल कारण हैं । इन तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है और ये तीनों प्रकृति के ही गुण हैं । यह प्रकृति ही समस्त विश्व की आत्मा है । वही समस्त कार्यों का सम्पादन करती है। यद्यपि पुरुष या जीव नामक एक चेतन पदार्थ भी अवश्य है, तथापि वह आकाशवत् व्यापक होने के कारण क्रियारहित है । वह प्रकृति द्वारा किये हुए कर्मों का फल भोगता है और बुद्धि द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों को प्रकाशित करता है। जिस बुद्धि के द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों को वह पुरुष या जीव प्रकाशित करता है, वह बुद्धि भी प्रकृति से भिन्न नहीं किन्तु उसी का कार्य है, अतएव वह त्रिगुणात्मिका है। अर्थात् वह बुद्धि भी तीन सूत्रों से बनी हुई रस्सी के समान सत्त्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों से ही बनी हुई है। इन तीनों गुणों का सदा उपचय और अपचय होता रहता है। इसलिए ये तीनों गुण कभी स्थिर नहीं रहते। जब सत्त्व गुण की वृद्धि होती है तो मनुष्य शुभ कार्य करता है, रजोगुण की वृद्धि होती है तब पाप-पुण्य-मिश्रित कार्य करता है और तमोगुण की वृद्धि होने पर हिंसा, झूठ आदि पापमय का करता है। इस प्रकार जगत के समस्त कार्य सत्व, रजस्, तमस् इन तीनों गुणों के उपचय-अपचय से ही होते हैं, निष्क्रिय आत्मा
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