Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
हैं, अथवा वे शरीरात्मवादी अपनी पूजा में प्रवृत्त होते हैं, और उस राजा आदि को अपने सिद्धान्त में दृढ़ करते हैं। (तेति पुवमेव णायं भवइ) इस शरीरात्मवादी ने पहले तो यह प्रतिज्ञा की थी कि (समणा अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो भविस्सामो) हम श्रमण, अनगार (गृहरहित), अकिंचन (द्रव्यादिरहित), अपुत्र (पुत्रादिरहित), अपशु (पशु आदि के स्वामित्व से रहित), दूसरों के द्वारा दिये गए भिक्षान्न पर निर्वाह करने वाले भिक्ष बनेंगे, (पावं कम्मं णो करिस्सामो) अब हम पापकर्म नहीं करेंगे। (समुहाए अप्पणा ते अप्पडिविरया भवंति) ऐसी प्रतिज्ञा के साथ वे स्वयं दीक्षा ग्रहण करके भी वे पापकर्म से निवृत्त नहीं होते हैं। (सयभाइयंति अन्नेवि आदियाति अन्न पि आयतंत समणजाणंति) वे स्वयं परिग्रह को स्वीकार करते हैं, दूसरे से स्वीकार कराते हैं, तथा परिग्रह स्वीकार करने वाले को अच्छा समझते हैं । (एवमेव ते इत्यिकामभोहि मच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना लुद्धा राग दोसवसट्टा) इसी तरह वे स्त्री तथा दूसरे कामभोगों में आसक्त, उनमें अत्यन्त इच्छा वाले, अनेक बन्धनों में बद्ध, लोभी, तथा राग-द्वेष के वशीभूत और आर्त होते हैं । (ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति ते णो परं समृच्छंदेति ते णो अण्णाइं पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समुच्छेदेंति) वे अपनी आत्मा को संसाररूपी पाश से मुक्त नहीं कर सकते, न वे दूसरे को संसाररूपी पाश से मुक्त कर सकते हैं तथा वे उपदेश आदि द्वारा दूसरे प्राणियों को भी संसाररूपी पाश से मुक्त नहीं कर सकते। (पुव्वसंजोगं पहीणा आयरियं मग्गं असंपत्ता) वे शरीरात्मवादी अपने स्त्री, पुत्र और धन-धान्य आदि से भी भ्रष्ट हो चुके हैं, और आर्यमार्ग को भी नहीं पा सके हैं, (णो हव्वाए णो पाराए) अतः वे न इस लोक के होते हैं, और न परलोक के होते हैं (अंतरा कामभोगेसु विसन्ना) किन्तु बीच में ही कामभोग में आसक्त रहते हैं। (इति पढमे पुरिसजाए तज्जीवतच्छरीरएत्ति आहिए) यह पहला पुरुष तज्जीवतच्छरीरवादी कहा गया है।
व्याख्या
तज्जीव-तच्छरीरवादी : प्रथम व्यक्ति
इस सूत्र में शास्त्रकार ने पुष्करिणी में उत्पन्न उत्तम श्वेतकमल को पाने में असफल प्रथम पुरुष की असफलता के कारणभूत तज्जीवतच्छीरवादी मत का विस्तृत रूप से निरूपण किया है।
__ शास्त्रकार इस सूत्र में सर्वप्रथम यह बताते हैं कि इस मनुष्य लोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चारों दिशाओं में अनेक प्रकार के विभिन्न कोटि और श्रेणी के मनुष्य होते हैं । वे सभी एक प्रकार के नहीं होते । कोई आर्य (धर्मबुद्धियुक्त) हेय बातों से दूर रहने वाले होते हैं तो कोई अनार्य (अधर्मी, पापी) होते हैं, कोई उच्च गोत्रीय तो कोई नीच गोत्रीय जन होते हैं। कोई लम्बे-चौड़े हृष्ट-पुष्ट जवान,
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