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आत्म-कथा मन्दिर में भजन पढ़ने आरती करते हुए नाचने आदि का भी पूरा शौक था । यद्यपि नाचने गाने की कला में बिलकुल शून्य था।
कुछ न समझने पर भी जैन-धर्म और जैन-शास्त्रों पर मेरी श्रद्धा असीम थी। मैं व्यवहार की भी हर एक बात का विचार शास्त्र से किया करता था । शास्त्र में लिखे न होने पर मैं प्राकृ. तिक अनिवार्य नियमों पर भी विश्वास न करता था।
एक बार एक मित्र से (भाई वावलाल से) मेरा इस विषय में विवाद छिड़गया कि विना सम्भोग के सन्तान हो सकती है या नहीं ? मेरा कहना था कि सन्तान के लिये विवाह हो जाना ही काफी है सम्भोग की कोई जरूरत नहीं । विवाह न होने पर केवल सम्भोग से सन्तान हो सकती है और सम्भोग न होने पर केवल विवाह से सन्तान हो सकती है। मेरा मित्र सन्तान के लिये सम्भोग अनिवार्य मानता था पर मेरी दलील यह थी कि " यदि सन्तान के लिये सम्भोग अनिवार्य होता तो पद्मपुराण में उसका जिक्र जरूर आता | सीताजीके दो पुत्र हुए पर राम-सीता में ‘सम्भोग हुआ हो ऐसा जिक्र शास्त्र में कहीं नहीं आया, फिर राम-सीता सरखेि लोकोत्तर व्याक्त सम्भोग सरीखी घणित क्रिया कैसे कर सकते हैं, इससे सिद्ध होता है कि बिना सम्भोग के सन्तान पैदा हो सकती है। ... .. यह थी मेरी . दलील, जिसके बल पर मैं अपने मित्र को हरा देता था और मेरे इस विशाल पांडित्य [१] के आगे मेरे मित्र को हार मान लेना पड़ती थी अर्थात् चुप हो जाना पड़ता था । धर्म