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आत्म कथा वितादेती हैं तब वह दोचार वर्ष क्यों न गुजारेगी ? और यदि नहीं गुजार सकती तो मुझे ऐसी सती नहीं चाहिये ।"।
पत्रं लम्बा था, उसमें और भी ऐसी ही बातें थीं, भाषा असभ्य न होने पर भी काफी कठोर थी । यह पत्र पिताजी के ऊपर वज्राघात के समान हुआ । वे इतने रोये कि शायद मेरी मौत से . इससे अधिक न रोपाते । इस के बाद मैंने कुछ दिन तक उन के पत्र का भी उत्तर नहीं दिया । जब में सागर पाठशाला से बनारस विद्यालय जाने लगा और पं. गणेशप्रसादजीने कहा कि-- 'तुम एक दिन पहिले घर चले जाओ, अपने पिताजी से मिलकर दूसरे दिन स्टेशन पर मिल जाना , तब मैंने घर जाने से इनकार. कर दिया । वनारस जाते समय जब गाड़ी दमोह पहुँची उस समय रांत के दो बजे थे । मौसम भी ठंड का था । उसी समय पिताजी की आवाज़ प्लेट-फार्म पर सुनाई दी-'दरबारी' । मैं चौंका और जब हम दोनों प्लेटफार्म पर . एक झाड़के नीचे मिले तब पिताजी आँसू बहा रहे थे, उनका कंठ रुंध गया था। वे रुंधे कंठसे बोलेभैया । मैं भी रोने लगा और उनकी छातीसे लिपट गया । उस कठोरः पत्र के सम्बन्ध में दोनों के हृदयों में तूफान उठ रहा था पर दोनों उस विषय में निःशब्द थे । रात में नींद लगजाने से मेरी . गाडी निकल न जाय इसी कारण वे शाम से ही स्टेशन पर आ
बैठे थे । और उस ठंडी और अँधेरी रात में वे घंटों से मेरी बाट देखते खड़े थे, मेरे खाने के लिये कुछ मिठाई भी लाये थे, उनकी इतनी सतर्कता, और इतना वात्सल्य देखकर मैं रोपड़ा और उस रात. को जीवन में पहिली ही बार में उनके पैरों पर गिरा।
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