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आत्म कथा
ही पर उसकी मात्रा नगण्य हो जाती । उस समय दमोह में नौकरी न की यह एक तरह का संकट ही टल गया ।
फिर भी मोरेना में मेरे ज्ञान का कुछ विकास नहीं हुआ । प्रारम्भ में धर्म की कक्षा में कभी कभी ऐसी शंकाएँ छोड़ देता था जिसमे अध्यापक और विद्यार्थी घंटों माथापच्ची करते रहते थे पर बाद में पढ़ने से बिलकुछ उदासीनता आई थी । किसी तरह न्यायतीर्थ पास हो जाऊँ और नौकरी करने लगू बस इतना ही तुच्छ उद्देश रह गया था ।
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घर की आर्थिक चिन्ता, और बालविवाह के कारण असमय में पके हुए यौवन की उत्ताल तरंगें दिनरात मन को क्षुब्ध बनाये रखती थीं । अधिकांश समय तास खेलने और विचारमग्न अवस्था मैं बाहर घूमने में निकल जाता था । न्यायतीर्थ की पाट्य पुस्तकें एक चार पढ़ीं थीं और एक बार कुछ निशानों पर नज़र डाल ली थी । वक्तृत्व कला और कवित्व शक्ति का यहाँ भी परिचय दिया था । पर सब से ज्यादा दिलचस्पी थी पत्नी को चिट्ठी लिखने में, उसकी चिट्ठियाँ पढ़ने में तथा वियोग के गीत बनाने में । पत्नी के साथ पत्रव्यवहार करना उस समय काफी निर्लज्जता का काम समझा जाता था । दमोह में मेरी और मेरी पत्नी की इस बात को लेकर काफी हँसी उड़ाई जाती थी, पर जवानी को, फिर चाहे वह असमय में पकी हो चाहे समय पर पकी हो, इन बातों को पर्वाह नहीं होती । कुछ सुधारक मनोवृत्ति भी थी उसने भी ऐसी बातों से लापर्वाह बना दिया था।