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नया संसार । २८३ कर भी कोई आदर्शपथ का पथिक हो सकता है।
गृहस्थ जीवन की वकालत का यह भी अर्थ न लगाना चाहिये कि म. महावीर, म. बुद्ध और म. ईसा ने जो गृहत्याग का मार्ग पकड़ा था उसमें कणभर भी अनौचित्य था । उनने उस समय की आवश्यकता के अनुसार विलकुल ठीक मार्ग पकड़ा था, उनका अनुकरण करने वाले बहुत से व्यक्ति भी ठीक मार्ग में थे और आज भी उस मार्ग की उपयोगिता है । जबतक जगत साधुता की आत्मा को नहीं पहिचानता तबतक साधुता के बाहिरी रूपों की जरूरत रहेगी ही। आज भी वह कम नहीं है । कदाचित मुझे भी कभी इस मार्ग पर किसी न किसी रूप में चलना पड़े या दूसरों को चलाना पड़े या चलनेवालों को ढूँढना पड़े।
मेरे संसार को चाहे कमजोरी समझा जाय चाहे उसमें आदर्श को मूर्तिमान बनाने की भावना के भी कुछ कण मान लिये जाँय पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि उसमें श्रेय पर उपेक्षा नहीं है।
पर अभी गार्हस्थ्य के विषय में मेरा जीवन अधूरा है। यह तो मैं खुव अनुभव कर चुका हूँ कि अगर हम में विवेक हो, प्रमाद न हो, कोई लक्ष्य सामने हो तो हमारी प्रगति में पत्नी वाधा नहीं डालती, योग्य पत्नी को लेकर तो संन्यास भी उसी तरह निभाया जा सकता है, जिस प्रकार दो साधु मिलकर सन्यास निभाते हैं । इस में बाधा पड़ने की संभावना है सन्तान से । सो सौभाग्य से मैं सन्तान के बोझ से मुक्त रहा हूँ - मुक्त हूँ । इसलिये सन्तान वाले गाहस्थ्य के साथ साधुता का निर्वाह कहां तक किया जा सकता