Book Title: Aatmkatha
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 295
________________ नया संसार [२८१ · आश्रम के पास जंगम और स्थावर कोई जायदाद नहीं थी इसलिये बहुत सम्भव था कि आश्रम भाड़ेतू मकान में पड़ा पड़ा अन्त में शून्य में विलीन हो जाता । सत्यमंदिर आदि भी कोरे स्वप्न रह जाते । विवाह के समय ये सब चिन्ताएँ मुझे घेरे हुए थीं, चाहता यह था कि विवाह के अवसर पर कुछ ऐसा चन्दा जमा हो जाय जिससे सत्याश्रम को कुछ अर्थ-शरीर मिल जाय । पर यह कहूं किससे ? संकोच इस बात का हो रहा था कि कोई कहेगा कि अपने विवाह को और भी प्रगावक बनाने के लिये यह सब जाल रचा है। इसलिये किसी से मैं इस विषय में कुछ न कह सका। पर इसकी पूर्ति दूसरे रूप में हो सकती थी कि मैं ही एक अच्छी सी रकम सत्याश्रम को दान कर दूं। जीविका और. जीवन तो दिया ही है और बचा हुआ अर्थ आखिर एक दिन समाज के काम में जायगा ही, तब अभी ही क्यों न दानी कहलाने का यश लूट लं । इस समय का पैसा रुपये से ज्यादा कीमती है यह भी विचार आया । इस मामलेमें वीणादेवी से अनुमति ली तो उनने भी सहर्ष अनुमति दे दी। सत्याश्रम के लिये कुछ दान तो मैं शान्तिदेवी के वियोग के समय घोपित कर चुका था बाकी कुछ और मिलाकर पांच हजार रुपये का दान घोषित किया। इस रकम से इतना. हुआ कि धर्मालय बन गया, प्रेस आगया और मकान के लिये भी कुछ रुपया बच गया । एक तरह से सत्याश्रम को शरीर मिल गया। और आत्मा डालना तो परमात्मा के हाथ में है. सो जब उचित होगा तब वही डाल देगा, अगर इस काम में मैं औजार बन गया तो

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