Book Title: Aatmkatha
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 296
________________ २८२ ] आत्मकथा मेरे जीवन का यह बड़ा से बड़ा सौभाग्य होगा । - नया संसार वसाकर मैंने क्या पाया ? अच्छा रहा या बुरा, इस विषय में इतना ही कहना है कि मुझे इससे बहुत सुविधाएँ ही मिली हैं। मेरी कर्तृत्वशक्ति यद्यपि बहुत तुच्छ है पर वह जितनी है उसमें कुछ कमी नहीं हुई है। विवाहित जीवन से-धर्म अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों जीवार्थों का समन्वय कुछ बढ़ गया है । - यों तो हरएक चीज के दो पहलू हुआ करते हैं । पहिले ही कह चुका हूँ कि कुछ कुछ हानि और कुछ कुछ लाभ दोनों पक्षों में है पर एक बात निश्चित है कि जगत को आदर्श सन्यासियों की अपेक्षा आदर्श गृहस्थों की जरूरत ज्यादा है। सतयुगी नई दुनिया वंह होगी जिसमें सन्यासी रहें भले ही, पर समाज को सन्यासियों की जरूरत न रह जायगी । नीतिमान सन्यासी की अपेक्षा नीतिमान गृहस्थ का मूल्य अधिक है। सन्यास अमुक परिस्थिति में अमुक व्यक्ति को आवश्यक होनेपर भी समाज के धारण आदि के लिये गृहस्थ जीवन ही विशेष उपयोगी है। और समाज को धारण करनेवाला ही तो धर्म है । गहस्थ जीवन की यह मैं वकालत सी कर रहा हूँ, वह इसलिये नहीं कि मैं सावित करूं कि मैंने जो मार्ग पकड़ा है वह श्रेय होने से पकड़ा है मेरे विषय में तो साफ बात यह है कि मैंने यह मार्ग प्रेय होने से पकड़ा है। हां, कुछ कुछ इतना विचार अवश्य रक्खा है कि श्रेय की हानि या विषेश हानि न होने पाये इसलिये मैं बहुत से बहुत क्षन्तव्य कहा जा सकता हूँ, आदर्श पथ का पथिक नहीं । हां, विशेष अन्तःशुद्धि होनेपर मेरे मार्ग पर चल.

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