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आत्मकथा है-इस विषय में मैं दावे के साथ कुछ नहीं कह सकता क्योंकि इसके पीछे अनुभव का पीठवल नहीं है। .
फिर भी भुक्तभोगी के अनुभव न सही, किन्तु एक दर्शक और विचारक के अनुभव से इतना कह सकता हूँ कि मनुष्य अगर चाहे तो सन्तान होने पर भी साधुता का निर्वाह कर सकता है। हज़रत मुहम्मद साहिब आदि इसके आदर्श मौजूद हैं | और समाज का आदर्श युग तो वही होगा जिसमें ससन्तान गार्हस्थ्य-जीवन के साथ साधुता रहेगी।
उपसंहार इस आत्मकथा में न तो ऐसी कोई घटना आ पाई है जो लोगों को चकित करे, न ऐसी कोई सफलता दिखाई देती है जो लोगों को प्रभावित करे, न जीवन इतनी पवित्रता के शिखर पर पहुंचा है कि लोग उसकी वन्दना करें । इस आत्मकथा का नायक ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे महात्मा, ज्ञानी, त्यागवीर, दानवीर आदि कहा जा सके । सच छा जाय तो यह साधारण मनुष्य की साधारण कहानी है और इसी में इसकी बड़ी भारी उपयोगिता है । साधारण मनुष्य के जीवन में जव असाधारणता की ओर बढ़ने की इच्छा होती है---वह पवित्र और जनसेवक बनना चाहता है तब उसके जीवन में ऐसी कितनी कठिनाईयाँ आती हैं जिन्हें दुनिया देख नहीं पाती---इसका आभास इस आत्मकथा से मिलता है।
. यह एक साधारण व्यक्ति की डायरी है इसे पढ़कर साधारण व्यक्तियों के मन में भी कुछ भाव जगेंगे और इस आत्मकथा से