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आत्मस्था इतने विचित्र पर्दे हैं कि उनके भीतर से असली वात देख सकना . असंभव सा मालूम होता है । दूसरों के दिलों की बात तो दूर रहें पर अपने दिल की असलियत पहिचानना भी काफी कठिन है : इसलिये मनुष्य दूसरों को तो धोखा देता ही है पर अपने को भी कुछ कम धोखा नहीं देता।
ऐसा मालूम होता है कि मनुष्य कोरा परार्थ शायद ही कर सकता है । उसके महान से महान परार्थ के मीतर बहुत गहरे जाकर उसकी स्वार्थ-सिद्धि रहती है । इसलिये परार्थ को त्याग कहना . परार्थ की स्तुति करना है । इसे महंगा सौदा कहने की भी जरूरत बहुत कम मालूम होती है यह विवेकपर्ण सौदा है जो स्वपरकल्याणकारी है। हां, इतना विवेक बहुत कम में पाया जाता है इसके प्रारम्भ में कुछ त्याग रहता है इसलिये यह दुर्लभ प्रशंसनीय और वंदनीय है।
. खैर, पिताजी को और भी जीवित देखने और उनकी सेवा करने के परार्थ में भी जिस प्रकार स्वार्थ और अहंकार घुसा हुआ था उससे मानव हृदय की जटिलता का बहुत कुछ आभास मिलता है। निःसन्देह मनुष्य को इससे ऊंचा उठना चाहिये, मैं कोशिश भी करता हूं, कभी कभी अमुक अंश में सफलता का आभास भी मिलता है पर पूर्ण सफलता नहीं पासका हूं । अपनी अपूर्णता का : खयाल करते हुए यही सोचता हूं कि दूसरों पर अपने नाम पूजा प्रतिष्ठा या जीवन का बोझ न लादूं दूसरों के नैतिक स्वार्थों को धक्का न पहुंचाऊं तो यही सब से बड़ी सफलता है।
वर्धा आगमन के विषय में विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता