Book Title: Aatmkatha
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 288
________________ २७६ ] आत्मकथा पर जाति के बाहर सम्बन्ध करने में मेरे सामने बड़ी कठिनाई आई । क्योंकि वहां परिचय थोड़ा था और जो कोई सम्बन्ध आता था वहां मैं कह देता था कि मैं नौकरी छोड़कर इस प्रकार समाजसेवा के लिये आश्रम बनाने वाला हूँ । इससे लोग घत्ररा जाते थे । पर मैंने निश्चय कर लिया था कि अपनी पूरी परिस्थिति को जताये बिना शादी न करूँगा । इसमें केवल 'सत्यप्रियता थी सो बात नहीं है किन्तु यह स्वार्थ भी था कि कल कोई बड़ी आशा से आवे और यहां फकीरी वाना पाकर असन्तोष जाहिर करे तो अपने को यह सहन न होगा इसलिये पहिले से ही सारी स्थिति साफ कर देना ठीक है । विधवा विवाह की कठिनाइयाँ और ज्यादा थीं । मैं चाहता था कि शिक्षित स्वस्थ और सदाचारिणी विधवा मिले, पर इस देश मैं अपने विवाह की चर्चा करने के लिये नारी जाति के मुँह प्रायः नहीं होता । और विधवाओं के अभिभावक तबतक चर्चा नहीं करते जबतक उसकी चरित्रहीनता खुल नहीं जाती । और किसी विधवा से इस विषय में बातचीत करना कुछ कम जोखिम का काम नहीं है। पर मेरे लिये विवाह करने की अपेक्षा अधिक जरूरी था विवाह के द्वारा अपनी सुधारकता की सचाई का परिचय देना, इसलिये महीने पर महीने निकलने लगे, मैंने बम्बई भी छोड़ी सत्याश्रम का कार्य बढ़ाना भी शुरू कर दिया पर सम्बन्ध न मिला । मैंने भी निश्चय कर लिया कि सुधारकता को चरितार्थ करने वाले योग्य सम्बन्ध के लिये द्वार बहुत वर्षो तक खुला रहेगा

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