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वर्धा आगमन और पितृवियोग
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रोकते भी मैंने पढ़ लिखकर जैसे धन और यश कमाया और तुम्हें भी सन्तुष्ट और सुखी किया उसी प्रकार आज नौकरी छोड़कर भी तुम्हें पहिले से अधिक सन्तुष्ट रख सकूँगा ।
यह कितनी प्रच्छन्न और गहरी अहंकार पूजा है । आदमी साधारणतः अपने माता-पिता तथा पुराने परिचितों को अपनी सफलता या उत्कर्ष दिखाना चाहता है उसके मूल में यही अहंकार पूजा रहती है । यह अपरिचितों को दिखाने से उतनी नहीं होती जितनी परिचितों को दिखाने से । अपरिचितों के लिये तो हम शुरू से ही कुछ बड़े दिखाई देते हैं पर माता-पिता आदि ने तो हमारे वे दिन देखे होते हैं जब हम बिलकुल असमर्थ दीन और अपढ़ थे । उनकी नजरों में हमारे विकास की मात्रा अधिक से अधिक दिखती है और फिर कहीं उनकी आशा के अनुरूप या उससे अधिक विकास हुआ तत्र तो कहना ही क्या है । विकास की मात्रा जो जितनी अधिक देख पाते हैं उन्हीं को अपना उत्कर्ष दिखाने के • लिये मन उतना ही अधिक लालायित हुआ करता है, क्योंकि इससे हम अपनी महत्ता का अनुभव अधिक कर पाते हैं । वहुत बुरी न होनेपर भी आखिर यह अहंकार पूजा है । अगर मात्रा या शिष्टाचार का विवेक न रहे तो यह बहुत बुरी भी हो जाती है इससे अपनी क्षुद्रता का परिचय भी मिलता है ।
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मनुष्य के परार्थ के भीतर कितने गहरे पटल पर स्वार्थ बैठा हुआ है और ऊंचे से ऊंचे परार्थ में भी किस प्रकार स्वार्थसिद्धि है इसका विचार करने पर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है । मनुष्य के दिल की गहराई असीम है और उसमें एक के बाद एक.