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वर्धा आगमन और पितृवियोग [ २६९ आनन्द होता, एक तरह से अंधेरे में ही कूद पड़ा था। पिताजी समझ ही नहीं पाते थे कि यह सब मैं क्या कर रहा हूँ। फिर भी वे चुपचाप मेरा अनुकरण कर रहे थे । उनका विश्वास था कि मेरे
लड़के ने जब विलकुल गरीबी से छोटी मोटी अमीरी हासिल की, . अगढ़ वाप का बेटा होनेपर भी इतनी विद्या पाई तव वह कोई मुर्खता का काम न करेगा।
पिताजी की इच्छा थी.कि एक वार घर जाकर सब सामान आदि लेकर या देकर सदा के लिये निश्चिन्त होकर वर्धा पहँच । इसलिये मेरे लिये रसोइया की व्यवस्था. हो जाने पर उनने दमोह के लिये प्रस्थान कर दिया । अब मैं विलकुल अकेला रह : या। वर्धा में गर्मी बहुत थी। यहाँ कोई सत्यसमाजी नहीं था कि कोई कार्यक्रम रखकर समय की उपयोगिता समझकर दिल बहलाता । इसलिये सोचा कि वर्धा में वेकाम की गर्मी खाने की अपेक्षा दिल्ली तरफ घूमकर कुछ काम की गर्मी क्यों न खाऊँ । लौटते समय पिता जी को साथ लेकर जन में वधी आ जाऊँगा । इस विचार से मैं दिल्ली पहुँचा वहां से मुजफ्फरनगर गया वहां से मेरठ आया कि बीमारी का तार मिला । मेरा कोई निश्चित पता न होने से तार देर से मिला था इसलिये जब मैं दमोह पहुँचा तब पिताजी का देहान्त हो चुका था। वे मेरे लिये कितने तड़पते रहे और मेरी अनुपस्थिति से उन्हें कितनी वेदना हुई, अन्त समय भी मैं उनके काम न
आ सका इसकी काफी चोट दिल को लगी। . उनकी साहुकारी तो उनके साथ गई, बहुत से घनिष्ट लोगों
ने गी झूठ कह दिया कि हम रुपये दे चुके । खैर, दस-दस बीस.