Book Title: Aatmkatha
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 277
________________ वम्बई से विदाई - [२६७ ने उसका कोई दूसरा रूप दे दिया हो । मुझे इस बात की चिन्ता नहीं थी कि मुझे विद्यालय नौकरी से छुड़ा न दे । मेरी समझ से तो मेरे दोनों हाथ लड्डू थे। अगर विद्यालय छुड़ा दे तो अपनी स्वतंत्र विचारकता के लिये अपनी जीविका की एक कुर्वानी और हो जाय, अगर मैं ही चला जाऊँ तो समाज-हित के लिये मेरा यह त्याग हो जाय । तप और त्याग दोनों के लिये मैं तैयार था इसलिये निश्चिन्त था। हाँ, इतना अनुभव हुआ कि विचारकों और सुधारकों का मार्ग काफी कँटीला है । फकीरी के लिये तैयार हुए विना इस मार्ग में विशेष सेवा नहीं की जा सकती। आश्रम के लिये योग्य स्थान ढूँढ़ रहा था पर मिल नहीं पाया था। इधर परिस्थिति ऐसी आ गई थी कि बिना पाये अब गुजर नहीं थी। अब जो भी स्थान मिल जाय वहीं वसना जरूरी हो गया था इसलिये एकबार फिर दौरा किया और धूमते घूमते वर्धा आ पहुँचा। देशभक्त सेठ जमनालालजी बजाज से मेरे विषय में कछ मित्रोंने पहिले ही कुछ कह दिया था । मैं जब मिला तो सेठजी ने इच्छा व्यक्त की कि मैं वर्धा ही अपना केन्द्र बनाऊँ। उनने यहां रहने के बहुत से फायदे भी सुनाये । संस्था के लिये पांच साल तक ५०) महीना देने या दिलाने का वचन भी दिया । यद्यपि वर्धा मुझे पूरी तरह पसन्द नहीं आया पर दूसरा कोई स्थान मिल नहीं रहा था और बम्बई में बेकार बैठना भी ठीक नहीं था इसलिये . वर्धा ही चुन लिया। . मेरे मित्रों की. यह इच्छा नहीं थी कि मैं इस प्रकार अर्ध

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