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इन्दोर में
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पनपकर जीवन का काफी हिस्सा
साथ दिया इस प्रकार उसने घेर लिया । मेरे जीवन के विकास के लिये यह जरूरी भी हुआ । विधिको गति !
यद्यपि मेरे जीवनमें उछलना-कूदना - हँसना, खूब विनोद करना आदि सब कुछ था पर इन सबका क्षेत्र साथ के कार्यकर्ताओं तक ही रहा । अधिकारीवर्ग तथा समाज के लोगों से तो दूर रहने की वृत्ति ही रही । इसी एकांतप्रियता में मुझे अपने अभिमान की रक्षा मालूम होती थी । परिस्थितियों ने ठोक पीटकर काफी ठिकाने ला दिया था इसलिये अभिमान का गर्जन 'बन्द-सा ही हो गया था पर वह मरा नहीं था, एकांतप्रियता या असंघर्ष नीति के कारण सो गया था। जो चोटें रोज़मर्रा की थीं और साधारण थीं उनमें तो वह विशेष नहीं जागता था पर कोई विशेष ठोकर लगते ही वह कूदने लगता था । जैसे रेलगाड़ी की गड़गड़ाहट कुछ स्थायी होने से नहीं डालती किंतु अपने को लक्ष्य में लेकर जब तब अपनी नींद खुल जाती है, इसी प्रकार नई भी होती थी तब अभिमान जग पड़ता था। कभी कभी वह ओचित्य के बाहर भी चला जाता था और निरर्थक या बेहूदा भी हो जाया करता था ।
नींद में बाधा
कोई बोलता है
चोट जब थोड़ी
"
एक बार मैं पर्युषण में
ने
बैठा था,
ज़ोर से
ज़ोर
शास्त्र गद्दी पर
सेठ हुकुमचन्द जी .
केहा, ज़रा
पढ़ो मैने आवाज़ को और खींचा। सेठजी बोले- जरा और जोर से
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