________________
२६४ ]
आमत्स्था
का विरोध कम हुआ था, इस बात को लेकर दिगम्बर समाज के विरोधी विद्वान यह अपवाद लगाया करते थे कि मैं श्वेताम्बरों के टुकड़े खाता हूं इसलिये उनके गीत गाता हूं.। एक तरफ मुझपर इस प्रकार आक्रमण करके दिगम्बर जैनों को भड़काया जाता . था और दूसरी तरफ श्वेताम्बर समाज को भड़काया जाता था कि मैं कैसा धर्मद्रोही हूं, जैनधर्म को जड़ मूल से उखाड़ रहा हूं, ऐसे आदमी को नौकरी में रखना वड़ा भारी अन्धेर हैं। इस प्रकार एक बात कहकर मेरे विरोध में दिगम्बर समाज को भड़काया जाता था और उससे उल्टी दूसरी बात कहकर श्वेताम्बर समाज को भड़काया जाता था । एक में मुझे श्वेताम्बरों का गुलाम या पिटू कहा जाता था तो दूसरी में उनका विरोधी बताया जाता था।
- मुझे यह खूब ही अनुभव करना पड़ा कि मतभेद मतविरोध तक ही सीमित नहीं रहा वह व्यक्तित्व विरोध बन गया और उसके लिये ईमानदारी भी जरूरी न रही। जिन विरोधियों को मेरी निष्पक्षता का पता था वे भी मुझे श्वेताम्बरों के इशारे पर नाचनेवाला समझते थे, हालां कि अपने विचारों की रक्षा के लिये मैं इन्दोर की नौकरी छोड़ चुका था।
खैर, अन्त में श्वेताम्बर समाज में क्षोभं वढा, मेरे विरोध में अर्थात मुझे विद्यालय से हटा देना चाहिये इसके समर्थन में आन्दो. . .लन होने. लगा, मुंबईसमाचार सरीखे सार्वजनिक पत्रमें भी यह
चर्चा आने लगी । इस बात को लेकर विद्यालय के प्रधान मंत्रीने 'जवाब तलब किया । मैंने जवाब दिया कि "जो कुछ मैं कर रहा हूं जैन धर्म को अकाट्य तथा वैज्ञानिक बनाने के लिये कर रहा