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आत्मकया.
यह चाहते थे कि अपनी बात का अगर इन मुनियों से समर्थन करालिया जाय तो जनता को अपनी तरफ अच्छी तरह खींचा जा सकेगा और सुधारकों को दबाया जा सकेगा। . . . . . :- जहां तक राजनीति का सम्बन्ध है, पंडितों की यह चाल उनके रक्षण के लिये काफ़ी अच्छी थी । पंडितों और मुनियों
दोनों के अपने अपने स्वार्थ थे इसलिये दोनों मिल गये । - मुनियों ने पंडितों के विचारों का समर्थन किया पंडितों ने
मुनियों को परम वीतराग सर्वज्ञ आदि कहना शुरू किया । पर 'इसका भयंकर परिणाम यह हुआ कि घोर से घोर दुराचारी मुनिवेपियों का समर्थन भी पंडितों को करना पड़ा इसलिये अन्त में सत्र की लुटिया डुवर्गई ।
पर यह सब पीछे की बात थी।, पहिले तो जब सुधारकोंके सामने लड़ने के लिये मुनि. लोग खड़े दिखाई दिये तब सुधारक भी किंकर्तव्यविमूढ़ होगये । सुधारक पत्र भी मुनिवेषियों के विषय में मौन .धारण किये रहे । सचमुच सुधारकों के सामने एक समस्या ही . खड़ी हो गई। मुनिवेपियों को छेड़ना भौरमछों के छत्ते में हाथ ; डालना था।
. पर इस तरह चुप कब तक रहा जाता अन्त में जैनजगत् ने इस मोर्चे पर डटने की तैयारी की । मुनि अशिक्षित थे शिथिला'चारी भी थे इसलिये एक दो सजन दबी जवान से कुछ कहते तो थे ही, खासकर ऐसी आवाज .पं. गणेशप्रसादजी वर्णी ने निकाली थी, पर इसका कुछ परिणाम नहीं हो सकता था, इसके लिये व्यवस्थित रीति से आन्दोलन करने की जरूरत थी । उस समय जैनं