Book Title: Aatmkatha
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 267
________________ २५६ ] आमत्तथा तव वह बीमार हो चुकी थी और इधर जब से जैनधर्म का मर्म' 'लिखना शुरू किया तब से पुत्रैषणा बिलकुल समाप्त हो गई थी। मैं समझता हूँ कि संतान के लिये दूसरा विवाह करना नारी के साथ अन्याय तो है ही परंतु दाम्पत्य जीवन का नाश भी है । ऐसी अवस्था में मनुष्यको दो ही मार्ग हैं-एक तो यह कि वह अपनी सारी सम्पत्ति और सारी शक्ति लोकसेवा में लगा दे; अगर ऐसा न हो सके तो पुत्र गोद ले ले | दूसरा विवाह करना दाम्पत्य स्वर्ग को नरक बनाना और असाधारण मूर्खता है। इतना ही नहीं बल्कि गुनाह बेलजत भी है। शिक्षण के विषय में यही कहना होगा कि मेरी पत्नी शिक्षित नहीं थी। उसने सिर्फ हिन्दी की दूसरी क्लास तक शिक्षा पाई थी । बाद में मैंने जैनधर्म की कुछ शिक्षा दी । रत्नकरण्ड-श्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह तक परीक्षा दें सकी कुछ हिंदींका भी ज्ञान बढ़ाया । हिंदी की पुस्तकें पढ़ा करती थी। इधर दिनरात घरमें विविध विषयों की चर्चा होते रहने तथा प्रवासमें मेरे साथ रहनेसे, व्याख्यान सुनते रहनेसे उसके 'विचार ठीक होगये थे; वह कुछ बहस भी करने लगी थी। परन्तु जैसा चाहिये वैसा शिक्षण मैं न दे सका । इसका एक कारण तो मेरी योग्यता थी । विद्यार्थियों को पढ़ाने में और पत्नी को पढाने में जो अंतर होता है, उससे मैं अनभिज्ञ था । मैं थोड़ेमें ही गरम हो जाता था, इससे उसका उत्साह भग्न हो जाता । जब. मैं अपनी 'इस मुर्खता से परिचित हुआ तब मेरे पास सामाजिक कार्य इतना . बढ गया था कि मैं पर्याप्त समय इसके लिये नहीं दे सकता था। इधर पिछले '६ वर्ष बीमारीने खा लिये थे। युवकों से मैं कहूंगा कि

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