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दाम्पत्य के अनुभव
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और पद से सम्बन्ध रखनेवाले आंचार वहां प्रचलित हैं । पोलका पहिनना भी बड़ा फैशन समझा जाता है । हम लोग इन्दौर में आये तो वहां भी यही हाल था । सुधार करने की मेरी इच्छा थी । मैं सुधार के लेख उसे सुनाता जो प्रायः मेरे ही लिखे होते, ऐसी ही चर्चा करके सुधार के प्रति आकांक्षा उत्पन्न करतो । जब कुछ भूमिका तैयार हुई तब मैंने पत्नी से कहा- चलो, आज अपन दोनों हवा खाने चलें | गये तो जँवरीबाग के सभी लोगों को ताज्जुब हुआ | परन्तु मेरा फक्कड़पन सब समझते थे इसलिये कुछ कह न सके । कुछ दिन टीकाटिप्पणी हुईं, परन्तु बादमें तो अन्य लोग भी सपत्नीक भ्रमण करने जाने लगे । स्त्रियोंको सुधारं वरा नहीं लगता परन्तु संकुचित वातावरण में रहने तथां शिक्षण के अभाव के कारण टीकाओं का सामना करने में वे डरती हैं । यदि पतिका वल मिले और उन्हें प्रेमसे समझाया जाय तो वे तैयार हो जाती हैं । जब मेरी पत्नी कहीं से शिकायत लाती कि आज अमुकं स्त्री ने घूंघट न करने के कारण यह कहा, आभूषणों के विषय में वह कहा, तब मैं उसे कोई मार्मिक उत्तर बताता जिसका उपयोग करके वह सामना करती । जब कुछ उत्तर न सूझता तब यही कहती कि मुझे अपने घर के आदमी को खुश रखना है, दुनिया को खुश नहीं रखना । मौके बेमौके के लिये ऐसे अनेक उत्तर मैंने सिखा रक्खे थे जिन्हें उसने समझपूर्वक अपना लिया था । मेरे जितने सुधारक विचार हैं उन सबका उसने प्रारम्भ में विरोध किया था, परन्तु मैंने न तो इसके लिये उसे फटकारा, न उपेक्षा की; किन्तु खाते-पीते, चलते-फिरते उसे प्रेमसे समझायां, सरल दलीलों का उपयोग किया, कभी कभी
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