Book Title: Aatmkatha
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 270
________________ २६० ] आत्म-कथा उसकी भावनाओं को उत्तेजित करके विचारों की छाप मारी | परन्तु यह कभी अनुभव नहीं होने दिया कि मैं दबाता हूँ | मैंने सदा यही कहा कि मेरी बात जचे तो मानो, मैं तुम्हारे धर्म में बाधा नहीं डालूंगा । एक तरफ इतनी ढील थी तो दूसरी तरफ अपने विचार उसके कानों में डालता ही रहता था । जैनजगत या सत्यसंदेश का स्वाध्याय करना उसका नियम था, न समझने पर भी वह पढ़ती थी । इसका एक कारण यह भी था कि वह मेरी चीज़ थी, इसका भी कुछ प्रभाव पड़ता था । अगर वह न पढ़ती तो मैं ही सुनाता । वह रोटी बनाती मैं लेख सुनाता । ' ये हमारे लिये कितना परिश्रम करते हैं? - इसका भी उसके हृदय पर कुछ प्रभाव पड़ता था । मतभेद प्रगट करने के विषय में हम दोनों की एक नीति यह थी कि मतभेद आपस में ही प्रगट किये जांय बाहर प्रगट न किये जांय । विजातीय विवाह, विधवा-विवाह, मुनियों की आलोचना आदि विषयों में यद्यपि शान्ता एकदम सहमत नहीं परन्तु जब से मैंने इस विषय के आन्दोलन उठाये तव से उसने बाहर विरोध नहीं किया । पीछे तो मेरे सब आन्दोलनों के विषय में उसके विचार मेरे सरीखे ही हो गये । कदाचित् उनके प्रगट करने की दृढ़ता में वह मुझसे पीछे न रही । एक बार की बात है कि वह अपनी वहिन के यहां ऊमरा [ सागर ] गई थी, उसी समय वहां शान्तिसागर संघ आया था । उसकी बहन ने भी मुनियों के लिये भोजन बनाया । संघवालों को पता लग गया कि मेरी पत्नी वहां है । भला संघवाले इस अवसर को कैसे चूक सकते थे ? मैं वहां था नहीं, इसलिये इस

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