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सत्यसमाजकी स्थापना [ २२७ की बात भी मानने को तैयार नहीं है । यद्यपि मैंने हठ से बचने की काफी कोशिश की है फिर भी खूब ढ़ विचार प्रगट करने का ही खयाल रहा है इसलिये अपनी दृढ़ता को हठ से अलग बता सकने का अवसर नहीं पाया या कम पाया अथवा यों कहना चाहिये कि मैं हठ और दृढ़ता का भेद बतलाने में अयोग्य सावित हुआ।
खैर, निन्दा स्तुति की चिन्ता न करके जैनधर्म को अकाट्य और सामयिक बनाने के लिये मैंने काफी कोशिश की। और उसीका फल था जैनधर्म का मर्म ।
पुस्तकाकार छपाते समय इसका नाम जैनधर्भमीमांसा कर दिया गया क्योंकि पुस्तक इतनी विशाल हो गई थी कि उसे मीमांसा कहना ही ठीक मालूम हुआ।
२५ सत्यसमाजकी स्थापना यद्यपि सत्यसमाज की कल्पना सन् १९२४ में ही दिल में आगई थी पर उस समय सत्य-समाज को उस रूप की कल्पना नहीं थी जो पीछे दिखाई दिया । उस समय मेरी कल्पना की दौड़ अधिक से अधिक जैन-धर्म-मीमांसा तक ही थी । जैन-धर्म को संबोधित करना और उस संशोधित जैनधर्म के प्रचार के लिये सत्य-समाज की स्थापना करना ऐसा ही कुछ अस्पष्ट रूप उस समय या । कदाचित् सब धर्मों का खण्डन कारके नया धर्म बनाने का भी विचार हो पर सल्य-समाज के वर्तमान रूप का उस समय ध्यान नहीं था। हां, उसके लिये आजीविका छोड़कर एक प्रकार या संन्यास या अर्थसंन्यास लेनेका विचार उस समय अवश्य था । फिर भी इसकी