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विविध आन्दोलन
[ २१९ में जातिपाँति वर्णव्यवस्था आदि पर काफी चर्चा थी । चर्चा कुछ दिलचस्प भी थी और गंभीर तथा मौलिक भी थी, फिर भी उसके दो तीन सौ श्लोक बनाकर ही रह गया, क्योंकि गौतम के मुँह से भविष्य कहलाया गया था पर बाद में भविष्य कहलाना मुझे ठीक न मालूम हुआ, क्योंकि ऐसे अलौकिक ज्ञानों की अन्धश्रद्धापूर्ण मान्यता गौणरूप में भी प्रगट करना मुझे अरुचिकर होगया था। दूसरी बात यह कि आन्दोलन का क्षेत्र वढ़ जाने से उस संकुचित चर्चा के विषय में लिखने से जी ऊब गया था ।
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धर्मरहस्यम् पन्द्रह पन्द्रह बीस बीस श्लोक के टुकड़ों में पत्र में प्रकाशित होता था साथ में अनुवाद और भावार्थ भी होता था । यद्यपि मैं संस्कृत और प्राकृत में प्रन्थरचना का विरोधी हूं फिर भी 'जैसे को तैसे की नीति के अनुसार चाल चलने के लिये मैंने यह तूफान खड़ा किया ।
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संस्कृत में ग्रंथ लिखा जाय और उसमें गौतम गणधर के मुँह से सुधारकों की तारीफ कराई जाय उनके मत का समर्थन कराया जाय स्थितिपालकों की मूढ़ता को कोसाजाय, यह सब तूफान ही था ।
जैन शास्त्रों में शास्त्र की परिभाषा कुछ भी लिखी हो पर जनसाधारण का इस विषय में इतना पतन हो गया है [ उसमें विद्वानों का भी समावेश किया जा सकता है ] कि शास्त्र की परि. भाषा उनकी नजर में यही रह गई है कि जो ग्रंथ संस्कृत या प्राकृत भाषा में बना हो, जिसमें जिनेन्द्र को नमस्कार किया गया हो और बनानेवाला मर गया हो वह शाल | मैंने धर्मरहस्यम् बनाकर शाल
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