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.. २१६ ] : आत्मकथा
:- मेरा अनुभव इससे उल्टा था । साथ ही विचार से भी ___ यह बात: ठीक न मालूम होती थी । अनुभव तो मुझे यह हुआ कि
उनसे उग्र विरोधी भी,. जहाँ तक मैं स्मरण करता हूं, मुझे कोई ऐसा.न.मिला जो उत्तर प्रत्युत्तर में [लिखने में] तीनवार से अधिक टिका हो। तीसरी बार में प्रायः सभी चुप हुए । इस प्रकार असीम चर्चा का अवसर नहीं आया.। . . . . . . . . विचार यह है कि अगर हमारे पक्षमें सचाई है तो विरोधी को दो तीनवार की चर्चा के बाद मौन रहना पड़ेगा, अथवा उसे ऐसा निरर्गल प्रलापी या टालंबाज बनना पडेगा कि जो उस चर्चा को पढ़ेगा वही उसकी कमजोरी को समझ लेगा। जब अपनी बात इतनी साफ सिद्ध होजाय कि विरोधी के समर्थन न करने पर भी साधारण जनतां पर अपने विचारों की छाप लग जाय भले ही कह माने या न माने] तो वहाँ चर्चा छोड़ी जा सकती है। विरोधी • दुनिया को सरलता से धोखा दे सकता है पर अपने को ऐसी सरल. तासे धोखा नहीं दे सकता । इसलिये अपने युक्तियुक्त उत्तरों का असर विरोधी पर पड़ना ही है और उसकी छाया किसी न किसी रूपमें चारों तरफ फैलती है । इस प्रकार किसी एक चर्चा में जन
दस्त प्रतिद्वन्दियों की उत्तर देकर आगे बढ़ना ठीक होता है । . . विजातीय विवाह विधवाविवाह जैनधर्म का मर्म, आदि आन्दो
लॅनों में मैंने इसी नीति से काम लिया । अपनी बात कहना, विरोयों को उस पर खून विचार करने देना; उनके वक्तव्य की उपेक्षान करना; तवनिर्णय और तत्वप्रचार दोनों दृष्टियों से: उपयोगी है।