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आत्म-कथा
हो जाता, तबतक हमें उनका बहिष्कार न करना चाहिये अगर उनके विचार युक्ति-विरुद्ध हैं तो हमारे भीतर एक से एक बढ़कर विद्वान हैं उनसे खंडन कराना चाहिये । सम्भव है हमारी युक्तियों से उनका मत बदल जाय या उनकी वातों में सचाई हो तो हमारा मत बद जाय दोनों तरफ से कल्याण ही कल्याण है वहिष्कार से तो द्वेष घृणा और हठ ही बढ़ेगा ।'
मेरी इन बातों से और लोगों न भी सहमति प्रगट की और कहा कि वोट का समय आने दो हम आपके पक्ष में वोट देंगे । पर जनरल अधिवेशन पर जब मैंने उपर्युक्त ढंग से वहिष्कार का विरोध किया तत्र सभा के स्वयम्भूनताओं की तरफ से जनताको इस प्रकार भड़काया गया 'भाइयो, जनधर्म अनादिनिधन है इसको पाकर अनन्तानन्त जीव मोक्ष गये हैं, उसपर अगर थोड़ा भी आक्रमण हो तो हमें प्राण दे देना चाहिये फिर बहिष्कार की वात ही क्या है ? क्या आपको पवित्र जैनधर्म प्यारा नहीं है ? यदि है तो धर्म-द्रोहियों का करो वहिष्कार, हुँ ३ चलो, उठाओ हाथ, बालो महावीर स्वामी की .... जय !
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इस प्रकार जय के साथ सैकड़ों हाथ उठ पड़े जब कि प्रस्ताव के विरोध में अर्थात मेरे पक्ष में सिर्फ एक ही हाथ उठा, सो वह भी मुझ बेवकूफ का ही था। मेरी बातों का समर्थन करने वाले कुछ पंडित हवा का रुख देखकर भीगी बिल्ली से दुबककर बैठ गये थे ।
सभाओं का यह अनुभव मुझे नया ही था । कुछ समय वाद तो मैं भी चतुर हो गया, परवार बन्धु का सम्पादक भी