________________
बम्बई में आजीविका [ १८९ से नहीं मिलती। ... समाज को मुझ से विरुद्ध देखकर जो मुझसे किनारा काटने लगे और समाज के सामने टिका हुआ देखकर जो मुझे फिर चाहने लगे उनकी स्थिति को मैं समझता हूं। उनके ऊपर जो किसी संस्था का बोझ होता है उसकी रक्षा के लिये उन्हें समाज की कुरुचिका भी समर्थन कर पड़ता है इस विषमता का कारण भी समझः से आता है । फिर भी यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि वे समाज को जो कुछ देते हैं उससे ज्यादा हानि करते हैं अथवा सेवा को निष्प्राण बना देते हैं । उन संस्थाओं के बालों पर ये संस्कार मजबूती से जम जाते हैं कि हमें सत्य के आगे नहीं लोकरुचि के आगे झकना चाहिये । ऐसे आदमी समाज का हित नहीं कर सकते उसे सिर्फ रिझा सकते हैं । यही कारण है कि पंडितों की-शिक्षितों की-संख्या बढ़ती जाती है पर पथप्रदर्शकों और सेवकों की संख्या घटती जाती है अथवा बढ़ नहीं रही है । खैर,
बम्बई आनेपर मैं एक तरह से खुली हवा में आया अभी तक मेरी स्थिति लंका में विभिषण सरीखी ही रही थी । पुराने विचार के लोगों में ही शिक्षण हुआ था उन्हीं में रहकर अध्यापन का कार्य करना पड़ा था दिनरात धर्मान्धता और रूढ़ियों का समर्थन होता था और उन्हीं में रहकर मैं अपने सुधारकता के पौधे को थोडेसे विवेकजलसे सींच रहा था । प्रतिकूल हवा की लू के झोंके उस पौधे को झुलसा देना चाहते थे, पर मैं अपनी सारी शक्ति लगाकर किसी तरह उस पौधे को झोकों से बचाये रख रहा था। वम्बई में आनेपर उतनी चिन्ता न रही । .