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जैनजगत का सम्पादन [.१९५ करने का खूब अवसर मिला, स्थान भी बना, और भर पेट-क्योंकि मेरा पेट बहुत बड़ा नहीं था-पैसा भी मिला · | इस प्रकार आजी
विका की गाड़ी श्रेय और प्रेय दोनों पहियों के सहारे अच्छी तरह . दौड़ने लगी। . [२२] जैनजगत का सम्पादन . ..
बम्बईमें आनेपर विजातीय विवाह आन्दोलन और भी जोर से चला। उससमय जैनमित्रके जरिये आन्दोलन करता था पर बम्बई आने पर जैन जगत से सम्बन्ध बढ़ा । जैन जगत के निकालने में चार व्यक्तियों का हाथ था । उसके प्रकाशक श्री फतहचन्द जी सेठी अजमेर, सेठ ताराचन्दजी बम्बई, श्री नाथूरामजी प्रेमी बम्बई, और श्री कर्परचन्दजी पाटनी जयपुर । पाटनी 'जी सम्पादक थे पर अन्य कार्यों की वजह से विशेष योग नहीं दे पाते थे। इन्दोर में रहते · हुए भी मैंने जैन जगत् का उपयोग किया था पर बम्बई में आने
पर सेठ ताराचन्दजी और प्रेमी जी के अनुरोध से काफी सम्बन्ध बढ़ा, अनेकवार सम्पादकीय अग्रलेख मुझेही लिखना पड़ते और टिप्पणियाँ भी। अब सब की इच्छा. हुई कि मैं इसका सम्पादक होजाऊं। पर नियमित लिखने के बोझ से मैं बचना चाहता था। इस प्रकार बहुत दिन टालता ही रहा । पर मेरे फिर फिर करते रहने पर भी प्रकाशकजी ने मेरा नाम एक जनवरी १९२८ के अंक पर सम्पादक के स्थान पर डाल दिया। . .. .जैन जगत की नीति जन्म से ही काफी निर्भीक थी। मेरे आनेपर भी उसकी नीति वैसी ही रही बल्कि कुछ बढ़ती ही गई।