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चम्बई में आजीविका
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इसलिये वेतन के विषय में मुझे इस लांच का अनुकरण क्यों करना चाहिये । क्यों न मैं जितना काम करता हूं उससे अधिक करूं ? पर प्रश्न यह था कि यह कैसे हो । यों ही तो समय दिया नहीं जा सकता और मेरे पास समय भी नहीं था क्यों कि जैनजगत और सामाजिक आन्दोलन चलाने में इतनी शक्ति खर्च हो जाती थी कि नौकरी का साधारण काम भी मेरे लिये बोझ था । पर एक तरफ जवानी और दूसरी तरफ सामाजिक क्रान्ति करने का नशा, इसलिये सब धकाता चला जाता था । फिर भी यह लालसा भी थी कि नौकरी के काम में जितना कम समय देना पड़े उतना ही अच्छा क्योंकि बचा हुआ समय समाज के काम में आगया । इस प्रकार एक तरफ कम समय देने का खयाल, दूसरे तरफ अधिक से अधिक पैसे लेने का विचार, तीसरे तरफ पैसे के अनुरूप अधिक काम करने की इच्छा, इस त्रिकोण का मेल कैसे बैठे, यह चिन्ता होने लगी ।
यद्यपि यहां स्वार्थ और परार्थ का द्वन्द मालूम होता था पर गहरी नजर डालने से पता लगेगा कि यहां दोनों तरफ स्वार्थ ही था। अधिक काम करने की इच्छा का मुख्य कारण था अपना सन्मान बढ़ाना और अपना स्थान मजबूत बनाना । मैं चाहता था कि मैं ऐसा काम करूं कि मुझे विदा देना संस्थासञ्चालकों के लिये कठिन होजाय मेरी कमी उन्हें खटके । असली बात यह थी कि मैं उस कठिन प्रसंग को देख रहा था कि जब मेरे विचारों को न सहकर इस समाज में भी कभी न कभी क्षोभ मचेगा । उस समय अगर यह मेरी विशेष कर्मठता मुझे कुछ समय अधिक टिकाये रक्खे