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विविध आन्दोलन [ १९९ ' यह अच्छा ही हुआ क्योंकि मैं ऐसे समझौतों से कोई लाभ नहीं देखताथा.कम से कम वह मेरे जीवन के कार्यक्रम के विरुद्ध था। विजातीय विवाह का आन्दोलन कर सकते हो पर अमुक अमुक आन्दोलन नहीं कर सकते, इस प्रकार की शर्तों पर यह समझौता खड़ा होनेवाला था । मैं इस समझौते पर दो चार महीने से अधिक नहीं टिक सकता था। मेरे जीवन के कार्यक्रम में तो एक के बाद एक आन्दोलन थे और वे सिर्फ आन्दोलन ही न थे अवसर पड़ने पर मैं उन्हें कार्यपरिणत करना कराना चाहता था, इसलिये यह समझौता निश्चित ही टूट जाता। स्थितिपालक पंडितों ने अगर यह समझौता स्वीकार कर लिया होता और जब कल विधवा विवाह आदि का आन्दोलन खडा होता तो विरोधी पंडित फिर उछल कूद कर सुधारकों को अलग करते । पंडितों और सेठों को रिझाने का मार्ग सुधारकों का नहीं होना चाहिये । मैं इस विषय में अपनी एक ही दृढ़ नीति रखता था कि जनता के सामने अपनी सचाई युक्ति आदि से प्रगट करना, सावित करना, इस प्रकार जनता को स्तब्ध करके थोड़े बहुत आदमियों को लेकर उस सुधार को कार्यपरिणत करना । इसके बाद अगर जनता का प्रक्षोभ हो तो शहीद होने की अपनी तैयारी बताना, डटे रहना, अपनी सर्चाई का प्रचार करते रहना । इस ढंगसे धीरे धीरे सुधार रिवाज बनता है जनता झुकती है बाद में बाकी रहे सहे झुकते हैं । इतना आन्दोलन तुम कर सकते हो और इतना नहीं कर सकते, इन बातोंके समझौते में शक्ति बर्बाद करने की कोई जरूरत नहीं है । धीरे धीरे किस तरह आन्दोलन करना यह हम स्वयं निर्णय करेंगे। हम जनता की नाड़ी