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आत्म-कथा यद्यपि यहां भी जैनसमाज की नौकरी थी फिर भी सञ्चालक कुंछ सुधारक थे और जितना सुधारक कहला कर में बम्बई में आया था उसके लिये वह नौकरी बाधक न थी । कम से कम उस अवस्था में पैर जमाने को काफी थी।
. फिर भी निश्चिन्त नहीं था। भीतर जो सुधारकता का तूफान सा आरहा था वह अगर सारा का सारा समाज को दिखाई दे जाय
तो बम्बई के. संस्थासञ्चालक भी सहन कर सकेंगे, ऐसी आशा .. नहीं थी। यों तो में अच्छे सहयोगियों के बीच पहुंच गया था
फिर भी प्राचीनता के समर्थक मेरे विरोधी पंडितों को जो सुविधा थी वह मुझे न थी। वे मेरा विरोध करें तो उनकी समाजसेवा थी ही, साथ ही नौकरी का काम भी समझा जाता था जव कि मुझे नौकरी का काम पूरा वजाना पड़ता था । कभी सामाजिक कार्य के लिये भी बाहर जाना पड़े तो उसके लिये भी उलहना खाना पड़ता था । इसलिये समाज के काम के लिये मुझ छुट्टी के दिन और छुट्टी का समय ही मिलता था । कुछ वर्षों वाद तो यह नियम सा होगया था कि गर्मी की छुट्टी प्रचार के लिये दौरा करने में जाती थी । आमदनी कुछ बढ़ जाने से इस काम में दो ढाई सौ रुपया प्रतिवर्ष खर्च भी करने लगा था .!
। खैर, इन्दोर से हर तरह अच्छा था। आमदनी बढ़ी थी स्वतत्रंता बढ़ी थी सामाजिक सम्पर्क बढ़ा था और इन सब कारणों से उत्साह और कर्मठता बढ़ी थी । इस सुधरी हुई परिस्थिति का एक · अच्छा असर यह भी हुआ कि लोगों पर कुछ प्रभाव भी जम गया । एक तो यह कि आर्थिक दवाव आने पर भी मैं नहीं दवा इससे