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१८४ ] .... आत्मकथा . . . पत्र का उत्तर भीः न दिया और भी दो. एक जगह लिखा और ऐसी जगह लिखा जहां. अगर पहिले लिखता तो वे अपने को सौभाग्यशाली मानते पर सब, लोग चुप रह गये । यद्यपि मैं सब कुछ सहने को तैयार था पर इस बात का खयाल अवश्य आता था कि दूसरा कोई अच्छा स्थान न मिला तो आर्थिक कष्ट तो बढ़ . ही जायगा साथ ही संगी-साथी मजाक भी उडायगें जिन विद्वानों ने मेरा साथ दिया है वे भी. चौकने होजायगे । और हुआ भी. ऐसा ही। एक अच्छे विद्वान ने तो मेरी नौकरी छूटने पर अपनी सम्मति वापिस भी लेली। अब मुझे ध्यान में आया कि विपत्ति का वास्तविक रूप क्या है ? ... पर विधाता.ने मेरे स्वभाव में कुछ ऐसी उग्रता.भर दी कि ज्यों ज्यों लोगों की उपेक्षा का पता लगता जाता था. त्यों त्यों मनमें एक तरह अहंकार आता जाता था। भय का स्थान रोष ले रहा था यह सहज भावना और भी अधिक उग्र होती जाती थी कि मर भले ही जाऊँ..पर झुकूँगा नहीं । इस दृढ़ता का श्रेय सत्यप्रियता को. कितना था यह नहीं कह सकता, अभिमान को बहुत कुछ था यह साफ है । भले ही इसे आत्मगौरव कहा जाय । .
: जितने परिचितः थे और जिनसे इस अवसर पर कुछ मदद की आशा थी, उनको मैंने पत्र लिखे पर आर्थिक दृष्टि से सहायता देनेमें, सभीने चुप्पी साधी । वर्धा के श्री चिरंजीलालजी बड़जात्याने अवश्य लिखा कि अगर मेरी आर्थिक अवस्था पहिले सरीखी होती तब कोई बात नहीं थी पर इस समय मैं कुछ विशेष नहीं कर संकता सिर्फ इतना ही कर सकता हूं कि अगर आप वर्धा: आवें