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डायरी के कुछ पृष्ठ
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वर्णव्यवस्था जैनियों को ही क्या भारतवर्ष मात्र को अनावश्यक ही नहीं— नाशक है जैनियों में परवार आदि जो जुदी जुदी जातियाँ हैं उनके रहने की कोई आवश्यकता नहीं है । अगरं रहें तो वनी रहें मगर सब में बेटी व्यवहार तक हो जाना चाहिये बस, फिर इनसे कुछ हानि नहीं । सच बात तो यह है कि वर्णव्यवस्था लुप्त हो चुकी है अगर क्षत्रिय वैश्य या शूद्र ब्राह्मण का कार्य करे तो क़ानून से उन्हें कोई नहीं रोक सकता इसलिये वर्षों की वृत्ति तो बदल गई है जोकि वर्णव्यवस्था की जान है । अब तो वर्णव्यवस्था का मुर्दा रह गया है जो कि दुर्गंध देने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता। लोगों का रूढ़िप्रेम इतना मजबूत है कि अपने मूर्खतापूर्ण विचारों के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकते । वे, और उन्हीं सरीखे अंधश्रद्धालु पंडितनामधारी जीव विशेष, गालियाँ देकर धमकाकर सुव्यवस्थापूर्ण व्यक्ति-स्वातंत्र्य का डंका पीटनेवालों का विरोध करना चाहते हैं । खैर मुझ इस बात का डर नहीं है, मैं इन विचारों का प्रचार करूंगा ही और इस जोर से करूंगा कि दस वर्ष में ही विजातीय विवाह आदर्श विवाहों में शामिल किया जा सकेगा। अभी एक पत्र आया है कि ' समाज को कार्य करने दो विजातीय विवाह का प्रश्न छेड़कर फूट क्यों डालते हो ' मगर इस तरह समाज सदा गढे में पड़ी रहेगी। जब तुम्हें समाज में नई रीतियों का लाना युक्तियुक्त नहीं जँचता तब उन्नति क्या खाक करोगे ? आचार्यों के वचनों पर क्यों मरे जाते हो वे मनुष्य (छद्मस्थ ) थे - त्रिकालज्ञ न थे । उनके कार्य उस समय के लिये ठीक हो सकते हैं मगर हम आज