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१७६ ] . आत्मकथा . अनुभवने बताया कि जो लोग विलासी हैं या हजारों रुपये दान भी कर देते हैं उनमें भी कंजूस पाये जाते हैं । विलास तो मोह का एक रूप है और बहुतों का दान भी एक तरह का लेनदेन है इससे उदारता का परिचय नहीं मिलता। जो जितने अंशों में विनिमय को गौण काता है और फिर कुछ जनहित के लिये देता है वह उतने अंश में उदार है । पर मुझनें यह उदारता न थी-बल्कि प्रच्छन्न भिक्षुकता थी । मैं किसी से कुछ माँग नहीं सकता था इसका कारण निभता नहीं किन्तु अहंकार था । मनमें सोचता-विना माँगे ही लोग मुझे क्यों नहीं देते ? यह पाप आमतौर पर विद्वानों में पाया जाता है यही कारण है कि आज सरस्वती को लक्ष्मी की दासी बनना पड़ रहा है । - खैर, भाग्य से वर्धा के श्री चिरंजीलालजी बड़जात्याने विजातीय विवाह पर कुछ फार्म छपवादिये जिन्हें भेजकर मैं सम्मति लेने. लगा । लिखित फार्म तैयार करके भेजने तथा अन्य पत्रव्यवहार में तथा वर्धा से इन्दोर आने के पोस्टेज में जितना खर्च हुआ सम्भवतः उतने में इन्दोर में ही फार्म छप सकते थे । पर कंजूम आदमी ऐसा विचार नहीं करता-वह तो अपनी थैली देखा करता है ।
खैर, सम्मतियों में खब, सफलता मिलने लगी । पत्रव्यवहार के परिश्रम का फल: यह हुआ कि करीब तीन दर्जन 'विद्वानों को सम्मतियाँ मेरे पक्षमें आगई जब कि विरोधी विद्वान एक दर्जन के करीब ही थे । सम्मतियाँ विद्वानों तक ही सीमित न रहीं किन्तु और भी सैकड़ों सज्जनों की सम्मतियाँ आई इसके बाद पंचायती प्रस्ताव भी मेरे पक्षमें आने लगे । अब फिर विरोध पक्ष